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सिदि
दोष नाहीं
है । तथा बाह्य परिग्रह न न होते भी किया है । ताका है, सो भी पर यऊ है ऐसा सी है कारण जाही भी कहिये । यऊ है ऐसें समाधान, जो, 121
हातात नाहीं । जातें इहां प्रमत्तयोगका ठहया । रागादिपारगासो भी परिग्रहवाची है, तो May स्वभावाकै मूर्ख नाहीं है, ऐसागकी अनुकृति है, तात शाम अभ्यंतरपरिग्रहकी ज्या तौ सम्यग्ज्ञानादिकवि भी यह
। वस्तुकै परिग्रहपणा नाहीं ठहरैगा । जा तुमने अभ्यंतर जो मूर्छा है ताहीका ग्रहण किया है । ताका समाधान, जो, हा
सत्य है । प्रधानपणातें हमने अभ्यंतरकाही ग्रहण किया है। बाह्यपारग्रह न होते भी मेरा यऊ है ऐसें परवि संकल्प
करनेवाला पुरुप है, सो परिग्रहसहितही है । अथवा बाह्य परिग्रह नाहीं भी कहिये है बहुरि परिग्रह है भी ऐसा भी। ना कहिये, जाते मूर्छाका आलंबन कारण है । तथा मूर्छा है कारण जाकू ऐसा है ॥ । बहुरि इहां तर्क, जो, मेरा यऊ है ऐसा संकल्प है सो भी परिग्रहवाची है, तो सम्यग्ज्ञानादिकवि भी यह मेरा
निका टीका है ऐसा संकल्प है, सो भी परिग्रह ठहय । रागादिपरिणाम अभ्यंतरपरिग्रहकी ज्यों यह भी है । ताका समाधान, जो, यह पान । | दोष नाहीं । जातें इहां प्रमत्तयोगकी अनुवृति है, तातै ज्ञानदर्शनचारित्रवान् पुरुष है सो मोहके अभावतें अप्रमत्त है, ।।२८२
मूर्छा नाहीं है, ऐसा याकै निष्परिग्रहपणा सिद्ध है ॥ इहां ऐसा भी विशेष जानना, जो, ज्ञानादि आत्माके । स्वभाव है, त्यागनेयोग्य नाहीं । तातै तिनतें परिग्रहसहितपणा न होय है अर रागादिक हैं ते आत्माके स्वभाव नाहीं ।
कर्मके उदयके आधीन होय है, तातै त्यागनेयोग्य हैं। तातै तिनवि मेरा यऊ है ऐसा संकल्प है सो परिग्रह हैही,
यह कहना युक्त है । इन रागादिकनिहीते सर्व दोप उपजै हैं । ए सर्व दोपनिके मूल हैं । मेरा यऊ है ऐसे संकल्पतेही २ परिग्रहकी रक्षा करनी उपार्जन करना इत्यादिक उपजै हैं । तिनवि अवश्य हिंसा होय है । इनके निमित्त झूठ बोले | है, चोरी करै है, मैथुनकर्मविपैं यत्न करें हैं । तिन पापनिके आभावते नरकआदिके दुःख अनेकप्रकार प्रवतॆ हैं ॥
आगे, ऐसे उक्त अनुक्रमकार हिंसादिवि दोप देखनेवाला पुरुपकै अहिंसादिकविर्षे गुणका निश्चय भया, तब अहिंसादिकवि बडा यत्न करने लगा, ताकै अहिंसादि व्रत होय हैं, सो पुरुप कैसा है ऐसे सूत्र कहै हैं
॥निःशल्यो व्रती ॥१८॥ याका अर्थ- मिथ्या माया निदान ए तीनि शल्य जाकै न होय सो व्रती है । जो शृणाति कहिये घातै चुभै । सो शल्य कहिये । सौ अर्थते शरीरकेविपें प्रवेश करै घसी जाय ऐसा शस्त्रविशेपळू शल्य कहिये । तिससारिखा चुभै
मनवि बाधा करै सो भी शल्यही कहिये ! जातें कर्मके उदयतें भया जो मानसिक विकार सो प्राणीनिकं शरीरसंबंधी मनसंबंधी बाधा करै सो भी शल्य है, ऐसा उपचारकरि नाम जानना । सो शल्य तीनिप्रकार है, मायाशल्य निदानशल्य मिथ्यादर्शनशल्य । तहा माया तो निकृतिकू कहिये, याकू ठिगनेके परिणाम भी कहिये । बहुरि विपयभोगनिकी वांछाकू निदान कहिये । बहुरि अतत्त्वश्रद्धानकू मिथ्यादर्शन कहिये । इन तीनितें रहित होय निःशल्य है सो व्रती है ऐसा कहिये है।