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आगे फेरि भी भावनाके अर्थ आगे सूत्र कहै हैं
॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ॥ ११ ॥
याका अर्थ — प्राणीनिविषै तौ मैत्री, अर गुणाधिकविर्षे प्रमोद, तथा दुःखी पीडितविर्षे करुणा, तथा प्रतिकूलविषै मध्यस्थ-परिणाम ऐसें ये च्यारिनिविर्षे च्यारि भावना राखणी । तथा परके दुःख न होनेका अभिलाष, सो तौ मैत्री कहिये । बहुरि वचनकर तथा प्रसन्नताकरि प्रगट होय ऐसा अंतरंगविर्षे भक्तिका अनुराग, सौ प्रमोद कहिये । बहुरि दीनकेविषै अ. ७ उपकार करनेका भाव, सो कारुण्य काहेये । बहुरि रागद्वेषकरि पक्षपात होय है ताका अभाव, सो माध्यस्थ्य कहिये ।
सर्वार्थ
सिद्धि
टीका
बहुरि पापकर्मके उदयके वशर्तें अनेकयोनिविर्वै कष्ट भोगवै ते सत्व कहिये, तिनकूं जीव कहिये । बहुरि सम्यग्ज्ञान आदि गुणनिकर बडे होय ते गुणाधिक कहिये । असातावेदनीयके उदयतें जिनकै क्लेश उपजै, ते क्लिश्यमान हैं । बहुरि तत्वार्थके सुननेकरि ग्रहण करनेकार अभ्यासकरि जिननें गुण न पाये ते अविनेय कहिये । इन सत्वादिक च्यारिनिविपैं यथासंख्य मैत्री आदि च्यायौं भावना भावणी । सर्वजीवनितें मेरी क्षमा है । ते सर्व मेरैपरि क्षमा करौ । मेरी सर्वतें प्रीति है-वैर काहूर्तें नाहीं है । ऐसें सर्व प्राणी जीवनिविषै तौ मैत्रीभावना भावणी । सम्यग्ज्ञानचारित्रादिककेविषै वंदना स्तुति वैयावृत्य आदिकरि गुणाधिकविषै प्रमोदभावना भावनी । मोहकर्मके मारे कुज्ञानसहित विषयअग्निकरि दग्ध, हिताहितमैं समझै नाही, अनेक दुःखनिकार पीडे, दीन, कृपण, अनाथ, बालक, वृद्ध, क्लिश्यमानवि करुणा भावनी । मिथ्यात्व कार खोटे हठग्राही अविनेयनिविषै मध्यस्थभावना करणी । ऐसें भावना भावनेवालेके अहिंसादिकत्रत हैं ते पूर्ण होय हैं ॥ आगे फेरि भी भावना कहनेके अर्थि सूत्र कहै हैं-
॥ जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥ १२ ॥
याका अर्थ -- जगत् कहिये संसार अर देह इनका स्वभावकी भावना करनी, संवेगवैराग्यके अर्थ । तहां प्रथमही जगत्का स्वभाव, जो, यह लोक है सो अनादिनिधन वेत्रासन झल्लरी मृदंगसारिखा आकाररूप है । ताविषै जीव अनादिसंसारविषै अनंतकाल नानायोनिविषै निरंतर दुःख भोगवता संता भ्रमण करे है। तहां निश्चित कछु भी नाही है । जीवित है सो जलके बुदेबुदेसारिखा है, तुरत विलाय जाय है । भोगसंपदा है ते बीजली बादलके विकारसारिखे चंचल । इत्यादि ऐसें जगत्का स्वभाव चितवन करने संसारतें संवेग होय है, भय लागे है । बहुरि कायका स्वभाव
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वच
निका
पान
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