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वच
निका
पान २७८
|| अनित्य है, दुःखका कारण है, साररहित है, अपवित्र है, इत्यादि ऐसें चितवनेते विषयनिविर्षे राग न होनेते वैराग्य 15| उपजै है । याते जगत् अर कायका स्वभावकी भावना करनी ॥
आगें पूछै, जो, हिंसादिकतै विरति सो व्रत है। तहां हम न जानी, ते हिंसादिक क्रिया कहां हैं ? तहां
आचार्य कहै हैं, ते युगपत् तो कहे जाय नाहीं । तातें तिनका स्वरूप कहना अनुक्रमतें है । तहां जो आदिविर्षे कही || सर्वार्थ
हिंसा, ताका लक्षणसूत्र कहै हैं-- सिद्धि
॥ प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ १३ ॥ याका अर्थ-प्रमत्तयोगते प्राणनिका वियोग करना, सो हिंसा है । तहां कषायसहितपणा सो तौ प्रमाद है । तिस
का परिणाम सो प्रमत्त है । प्रमत्तका योग सो प्रमत्तयोग कहिये । बहार इन्द्रियनिकं आदि देकार दश प्राण हैं, तिनका यथासंभव वियोग करना, सो व्यपरोपण है । ऐसें प्रमत्तयोगते प्राणव्यपरोपण है, सोही हिंसा | है । सो यऊ हिंसा प्राणीनिके दुःखका कारण है, ताते याकू अधर्मका कारण कहिये । इहां प्रमत्तयोग ऐसा विशेपणतें : | ऐसा जानना, जो, केवल प्राणनिके वियोग कारणमात्रपणाही अधर्मके अर्थि नाहीं है ॥ इहां उक्तं च अर्द्ध लोक है,
ताका अर्थ- प्राणनितें प्राणीनिकू न्यारा करै है अर हिंसाकरि युक्त न होय है । तथा दूसरा उक्तं च गाथा है, ताका b अर्थ- कोई मुनि ईर्यासमितिकरि गमन करतें पग उठावै था, ताके पगतले कर्मका प्रेय जीव आय पऱ्या मरि गया, |
तौ तिस कारणकार तिस मुनिकै सूक्ष्म भी किंचिन्मात्र भी बंध नाहीं है, ऐसे सिद्धांतमें कहा है । बहुरि अध्यात्मप्रमाणते ऐसा कह्या है, जो, मूर्छा है सोही परिग्रह है, अन्य नाही ॥
इहां कोई तर्क करै है, जो, प्राणनिका वियोग किये विना भी प्रमत्तयोगमात्रहीतें हिंसा मानिये है । जैसे सिद्धान्तकी उक्तं च गाथा है, ताका अर्थ- जो अयत्नाचार प्रवर्ते है, ताकी प्रवृत्तिमें जीव मरौ अथवा न मरौ ताकै हिंसा निश्चयतें होय है। अर जो यत्नसहित प्रवतॆ है-समितिसहित है, ताका हिंसामात्रहीकार बंध नाही है। तहां आचार्य कहै हैं, यह दोप नाहीं है । जातें जो अयत्नाचार प्रवतॆ है, ताकै केवल प्रमत्तयोगही नाहीं है, तहां भावप्राणनिका व्यपरोपण भी है । तैसेंही कह्या है उक्तं च श्लोक, ताका अर्थ- प्रमादवान् आत्मा है, सो पहले तो अपने आत्माकू आपकरि आप हणे है, पीछे अन्य प्राणीनिका घात होऊ तथा मति होऊ । तातै प्रमादवानके प्राणव्यपरोपण .भी अवश्य जानना ॥ ___इहां विशेप जो, वार्तिकमें ऐसा अर्थ है, इन्द्रियनिका प्रचारका विशेष अपनी सावधानी विना होय सो प्रमत्त