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सिदि। आहार है । है । तथा ल्यायकार ले आवै ताळू रानिमवधि रात्रिभोजन करनार जूड़ा प्रमाण अगिकी अ. ७ आवै है, निवृत्तिपरिणाय खाना बर्षे नाहन खाना यह संयमकाय तौ कहा दोष नाहीं ॥ ला पिछली भूमि ||
गट कार खाने में अनेक दोपवीत जाने हैं तिन साधले ल्याये परीक्षाकारदोष उपजे हैं, तथारग्रहरहितमुनि पाणियादि । / अन्नपान डायदिनमेंही भोजन काले हैं। ताका योगविभाग गुणदोषार भोजन संभवै नया दीन आचरणका पर दीखैः तैसें चंदमयुक्त है । जैसलमान करै तौ ता ज्ञान है, तिन। तहां कहिये रणका प्रसंग /का प्रकाशतें नाहीं दाल प्रगट भूमि देश दाता तात सूर्यके प्रकाश
नेकदोप उपजेर तत्कालही भोजला नाहीं। पीना
1अपना ज्ञानसूर्य अपनी इन्द्रियनिकार देखे मावि तथा पहले देश काल विचारि जूडा प्रमाण अगिली पिछली भूमिका
विहारभ्रमणकरि साधु शुद्धभिक्षा ग्रहण करै है, सो ऐसी विधि रात्रिभोजन करनेमें बणै नाहीं ॥ Ma फेरि कहैं, जो, दिनविर्षे भोजन ले आवै ताळू रात्रिमें खाय तो कहा दोष १ ताडूं कहिये, पूर्वोक्त दीपकआदि मा आरंभका दोष है । तथा ल्यायकरि भोजन खाना यह संयमका साधन नाहीं । बहुरि सर्व परिग्रहरहितमुनिक पाणिपात्र सिद्धि आहार है । सो ल्याय खाना बणें नाहीं । पात्रका संग्रह करै तौ अनेकदोष उपजे हैं, तथा दीन आचरणका प्रसंग टी का आवै है, निवृत्तिपरिणाम न होय है। फेरि कहै, पात्रमै ल्याये परीक्षाकार भोजन संभव है। तहां कहिये ऐसा नाहीं ।
| जे मुनि जीवनिके ठिकाने शास्त्रोक्त जानें हैं तिनकू संयोगविभाग गुणदोषका ज्ञान है, तिनकै तत्कालही भोजन बणे हैं,
ल्यायकार खानेमें अनेक दोप दीखे हैं। ताका विसर्जन करै तौ तामें अनेकदोष उपजे हैं । तात सूर्यके प्रकाशमें 1 प्रगट देखि दिनमेंही भोजन करना युक्त है। जैसे सूर्यके प्रकाशमें प्रगट भूमि देश दातार जन गमन आदि तथा 12 अन्नपान डाय स्पष्ट दीखै; तैसें चंद्रमा आदिका प्रकाशतें नाहीं दीखै ऐसा जानना ॥ आगें तिस पांच व्रतनिके भेद जाननेकू सूत्र कहै हैं -
॥ देशसर्वतोऽणुमहती ॥ २॥ याका अर्थ- ए पांचूही व्रत जब एकदेश होय तव तौ अणुव्रत कहिये । बहुरि सकल होय तव महात्रत कहिये । इहा देश ऐसा तो एकदेशकू कहना । सर्व सकलकू कहना । तिन देशतें विरति होय सो देशवत अणुव्रत है, सकलव्रत
महावत है, ऐसे दोय भेद भये । विरतिशब्दकी अनुवृत्ति ऊपरले सूत्रतें लेणी । ए दोऊ प्रकार व्रत न्यारे न्यारे भावनाMRI रूप किये संते श्रेष्ठ औपधकी ज्यौं दुःख दूरि करनेके कारण होय हैं। । आगें पूछे, तिन व्रतनिकी भावना कौन अर्थि है ? तथा कौनप्रकार है सो कही ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं
॥ तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंचपंच ॥ ३॥ याका अर्थ- इन व्रतनिके स्थिर करनकै अर्थ एक एक व्रतकी पांच पांच भावना हैं । इहां ऐसा जानना, जो, lal इनि भावना भायेरौं व्रतीनिके उत्तरगुणका संभवना होय है ॥
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