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सर्वार्थसिद्धि
व चनिका
टीका
पान
अ.
२७१
याका अर्थ कहें हैं, जो बुद्धिका नाश होतें ध्रुव रहै, सो अपादान है । सो ऐसे ध्रुवपणांकी विवक्षा बणें है, ऐसा कह्या है । धर्माद्विरमति ऐसे कहते जो यऊ मनुष्य विचारसहित है बुद्धि जाकी सो विचारे है, धर्म है सो दुष्कर है याका करना कठिन है, बहुरि याका फल प्रत्यक्ष नाही, श्रद्धामात्र जान्या है ऐसे बुद्धिकार ग्रहणकरि ताकू छोडें है,
ऐसें इहां भी जाननां । जो परीक्षावान् मनुष्य है, सो विचारै है ये हिंसादिक परिणाम हैं ते पापके कारण हैं, जो, १। इस पापनिविर्षे प्रवतॆ है तिनकू इसही लोकवि राजा दंड दे है, बहुरि परलोकविर्षे दुःखकू प्राप्त होय है ऐसे बुद्धि
करि ग्रहणकरि तिनते निवृत्ति होय है, तातै बुद्धिके अपायकी अपेक्षाकरि रुवपणांकी विवक्षा बर्षे है । ए हिंसा| पदार्थ तौ ध्रुवही हैं । इनका ज्ञान बुद्धिमें रहै ही है । त्यागग्रहण बुद्धिमें होय है ताकी अपेक्षा है, यातें अपादानपणां युक्त है ॥
इहां विरतिशब्द प्रत्येककै लगावणा, हिंसातें विरति, अनृततें विरति इत्यादि । तहां अहिंसाव्रत प्रधान है, तातें आदिवि कह्या सत्य आदि व्रत हैं ते अहिंसाकी रक्षाके अर्थि हैं । जैसे धान्यका खेतकी रक्षाके अर्थि बाडि कीजिये है तैसें है । सर्वसावद्ययोगकी निवृत्ति है लक्षण जाका ऐसा सामायिक एकही व्रत है, सोही छेदोपस्थापनकी अपेक्षाकरि पांचप्रकारका है, सो इहां कहिये है । बहुरि तर्क, जो, व्रतकै आश्रवका कारणपणां कहना अयुक्त है । जातें व्रतका संव| रके कारण विषे आगे गुप्तिसमित्यादिक कहियेगा तहां दशप्रकारधर्मवि तथा संयमवि अन्तर्भाव किया है । ताका समाधान | कहै हैं, जो, यह दोष नाहीं है । संवर तौ निवृत्तिस्वरूप आगे कहसी । इहां आश्रवअधिकारमें प्रवृत्तिस्वरूप कही है, । सो हिंसा अनृत अदत्तादान आदिका त्याग होतें अहिंसा सत्यवचन दत्तादान आदि क्रियाकी प्रवृत्ति है, सो प्रतीतिसिद्ध
है । बहुरि गुप्त्यादिकरूप जो संवर ताका परिवार व्रत है । व्रतनिविर्षे प्रवृत्ति करनेवाला साधुकै संवर सुखतें होय है । ताते न्यारा बणाकरि उपदेश कीजिये है ॥
बहुरि तर्क, जो, छठा अणुव्रत रात्रिभोजनका त्याग करना है, सो भी इहां गणनामें लेना चाहिये । आचार्य कहै हैं, इहां न चाहिये । जाते याका अहिंसाव्रतकी भावनावि. अंतर्भाव है, आगें अहिंसाव्रतकी भावना कहेंगे तहां आलोकितपानभोजनभावना कही है तामें गर्भित जानना । इहां विशेष कहिये है, जो, भावनाविर्षे आलोकितपानभोजन करना कह्या, सो तहां दीपकका तथा चन्द्रमाका प्रकाशविर्षे देखिकरि भोजन कीजिये तो कहा दोष ? ऐसे कोई कहै, सो यह युक्त नाहीं । दीपकआदिके प्रकाशविर्षे भी रात्रिभोजन करनेमें अनेक आरंभके दोष आवै हैं । सो फेरि कहै, जो, पैला कोई दीपकआदिका प्रकाश कर दे तब आरंभका दोष नाही होय । ताकू कहिये, जो, आचारसूत्रका ऐसा उपदेश है, जो,