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________________ परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री १०८ शातिसागर महाराजके आदेशसे श्री दिगबर जैन जिनवाणी जीर्णोद्वारक संस्थाकी तरफसे ज्ञानदानके लिये छपी हुई .. श्रीवीतरागाय नमः सर्वार्थ वच सिबि | वीर संवत् २४८१ ] ॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ [ प्रथ प्रकाशन समिति, फलटण || निका अथ तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धिटीका वनिका पंडित जयचंदजी कृता टीका पान ૨૭૦ दोहा- आठ कर्म आपपवि, पुण्यपापको भेद ॥ जानि जिनेश्वर भापियो, नमुंदा निरवेद ।। १ ।। ऐसे मंगलाचरणके अथि भगवानकं नमम्फार करि मातमा अध्यायकी वनिका लिखिये है। तहां मार्थसिद्धि नामा टीकाकारके वचन हैं, जो, आश्रवपदार्थका व्याग्यान किया, ताके प्रारंभमें ऐसा कया था, जो, शुभयोग पुण्यकर्मकार आश्रव है, सो यह तो सामान्यकरि कन्या, ताफा विशेष न जाण्या, जो, शुभ कहा है ? सो अव ताके जानने सूत्र कह है ॥ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतितम् ॥ १ ॥ याका अर्थ- हिंसा अनृत स्तेय अत्रय परिग्रह ए पांच पाप हैं । तिनतें विरति कहिये निवृत्ति होना सो व्रत है। तहां प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपगेपणं हिंसा इत्यादि सूत्रनिकरि आगें हिंसादिक कहेंगे, तिनते विरमण करना, सो व्रत एर्स कहिये । तहां यऊ करना यऊ न करना ऐसा अभिप्रायकरि किया जो नियम ताळं व्रत करिये । इहा तर्क, जो, हिंसादिक ती परिणामके विशेष हैं, ते अध्रव हैं, तिनक पंचमीविभक्तिकरि अपादान कहै, सो अपादान ती ध्रुव होय है। | अधुवक अपादानपणां कैसे बणे १ ताका समाधान, अनेन्द्रव्याकरणमें भपादानका लक्षण ऐसा है । ध्यपाये अवमपावानम 11
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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