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पान
हा साधर्मिविर्षे अकृत्रिम स्नेह होय, सो प्रवचनवत्सलत्व है ॥ १६ ॥ ऐसें ए सोलह भावना भलेप्रकार भाये हुते समस्तही |
तथा व्यस्त कहिये जुदे जुदे भी सम्यग्दर्शनकी शुद्धतासहित तीर्थकरनामके आश्रव हैं।
___ आर्गे नामकर्मका आश्रवका कथनकै अनंतर गोत्रकर्मके आश्रवके कारण कहने हैं, तहां नीचगोत्रका आश्रव || मर्वार्थ- कहने— सूत्र कहैं हैं
व चसि दिला
नि का टोका
॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २५॥ भ.
२६६ याका अर्थ- परकी निंदा करनी, अपनी प्रशंसा करनी, परके छते गुण निषेध करने, अपने अनछते गुण प्रगट करने इन भावनितें नीचगोत्रका आश्रव होय है । तहां सांचे तथा झूठे दोषनिके कहनेवि इच्छा करणी सो तौ निंदा कहिये । तैसैही सांचे तथा झूठे गुणनिके कहनेविर्षे इच्छा सो प्रशंसा कहिये । तिनका यथासंख्य संबंध करना परकी निंदा करनी, अपनी प्रशंसा करनी । बहुरि वस्तु रोकनेवाला कारणके निकट होते प्रगट होना, सो उच्छादन कहिये । बहुरि रोकनेवाला कारणका अभाव होय, तब प्रगट होना उद्भावन है । इहां भी यथासंख्य सम्बन्ध करना परके सांचे भी गुण होय तौ तिनकू प्रगट न करना, अपने झूठे गुणनिका प्रगट करना । ए सर्व नीचगोत्रके आश्रवके कारण हैं । इहां विशेप जो, जाकर आत्मा नीचस्थान पावै, सो नीचगोत्र है तिसके आश्रव कहे । तिनका विस्तार ऐसा, जाति आदि आठ मदका करना, परकी निंदातें हर्ष मानना, परका अपवाद करनेहीका स्वभाव राखना, धर्मात्माकी निंदा करनी, परका यश न सुहावना, गुरुनिका अपमान करना, तिनके दोष कहने, तिनतें विनयादिकरूप न प्रवर्तना इत्यादि जानना ॥ आगैं, उच्चगोत्रकर्मका आश्रवकी विधि कहा है ? ऐसे पूछे सूत्र कहें हैं
॥ तद्विपर्यायौ नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ २६ ॥ याका अर्थ- नीचगोत्रका आश्रव कह्या । तातै विपर्यय उलटा तथा नीचा होय प्रवर्तना, उद्धत होय न प्रवर्तना 5 ए उच्चगोत्रके आश्रव हैं । तहां तत्शब्दकरि तौ नीचगोत्रका आश्रव लेणा । जाते इस सूत्रके पहले लगता सोही
है । तिसते अन्यप्रकार है सो विपर्यय है । सो कहां? अपनी तौ निंदा, अर परकी प्रशंसा, अपना गुण प्रगट न कहना, परका गुण प्रगट कहना बहुरि गुणनिकरि उत्कृष्ट होय महान् होय तिनवि विनयकरि नभ्रीभूत रहना, सो