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________________ निका पान २६४ हैं, तिनके निमित्ततें श्रद्धातें छूट नाहीं, तथा अरहतका उपदेश्या प्रवचन ताविर्षे 'यह सत्य है कि असत्य है। ऐसा संदेहका न करना, सो निःशंकितत्व है ॥ १ ॥ इहलोक परलोक संबंधी विषयभोगकी वांछा न करै, तथा अन्यमतमें कछ लौकिकचमत्कार देखि तिस मतकी वांछा न करै, कोऊ कारण नाही बणै तौ वांछाकर श्रद्धान न छोडै, सो निःकांक्षि तत्व है ॥ २ ॥ शरीर आदिकू अशुचि जानि यह शुचि है ऐसा मिथ्यासंकल्पका अभाव तथा अरहंतके प्रवचनविर्षे सर्वार्थसिद्धि फलाणां कष्ट घोर कह्या है जो ' यह न होय तौ और तो सर्व युक्त है । ऐसी अशुभभावनाका अभाव सो निर्विटीका 0 चिकित्सा है ॥ ३ ॥ अनेकप्रकारके कुनयके पक्षपातरूप मत ते तत्वसारिखे समान दीसै अर यथार्थ नाही, तिनविर्षे अ ६१ परीक्षारूप नेत्रनिकरि परीक्षा करि युक्तका अभाव देखि मूढताते रहित होना, सो अमूढदृष्टिता है ॥ ४ ॥ उत्तमक्षमाआदि धर्मनिकी भावना करि आत्माके धर्मकी वृद्धि करणी, सो उपबृंहण है तथा याका नाम उपगृहन भी है । तहां साधर्मी जनकू कर्मके उदयतें कोई अवगुण लग्या होय ताळू उपदेशकरि छुडावनेकू तथा जामें धर्ममार्गकी अवज्ञा न होय तैसें छिपावना सो उपगृहन है ॥ ५ ॥ कपाय आदि कर्मके उदयकरि धर्मतें छूटनेके कारण बणै तहां आपकू तथा साधर्मीजनकू धर्मते दृढ करि थिरता करणी सो स्थितीकरण है ॥ ६ ॥ धर्मवि तथा धर्मात्माविर्षे प्रीति । दृढ होय परमवत्सलभाव होय सो वात्सल्य है ॥ ७ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र तेई भये तीनि रत्न तिनकार आत्माकू अलं काररूप शोभायमान करि उद्योत करना तथा महान् दान जिनपूजा प्रतिष्ठा विद्या मंत्र अतिशय चमत्कार करि मार्गका उद्योत करना जाते लोक ऐसा जानै । यह धर्म सत्यार्थ है, ऐसे करना, सो प्रभावना है ॥ ८॥ ऐसें सम्यग्दर्शनके अतीचार सोधि अष्टांगभूपित करना, सो दर्शनविशुद्धि है ॥ १॥ सम्यग्ज्ञानादिक जे मोक्षके साधन तथा तिनके साधन जे गुरु शास्त्र आदि तिनविर्षे अपने योग्य प्रवृत्ति कार आदर सत्कार करना अथवा कषायकी निवृत्ति, सो विनयसंपन्नता है ॥ २ ॥ अहिंसादिक व्रत तथा तिनके रक्षक क्रोधवर्जनादिक शील तिनकू उत्तरगुण भी कहिये तिनविपें यथापदवी मनवचनकायकरि दोप लगावना, सो शीलव्रतेष्वनतिचार है ॥ ३ ॥ मति आदि ज्ञानके भेद प्रत्यक्षपरोक्षप्रमाणरूप अज्ञानका अभाव जिनका फल तथा हेयका त्याग उपादेयका ग्रहण तथा उपेक्षा कहिये वीतरागता जिनका फल ऐसै ज्ञानकी भावनाविपें निरंतर उपयोग राखणा, सो अभीक्ष्णज्ञानो| पयोग है ॥ ४ ॥ संसारवि शरीरसम्बन्धी मनसंबंधी अनेकभेद लिये अतिकष्ट लिये दुःख है, बहुरि प्यारेका वियोग अनिष्टसयोग चाहीवस्तुका अलाभ इत्यादिसहित है ऐसे संसारतें भय करना, सो संवेग है ॥ ५ ॥ पैलेकू प्रीतिका कारण वस्तुका देना, सो त्याग है। तहां पात्रके निमित्त आहार देना, सो तिस दिनवि4 वाकै प्रीतिका कारण है।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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