SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विच पान |२५७ कामातुर होय तो मैथुन भी सेवना रात्रिभोजन भी करै इनमें पाप नाहीं ऐसे शास्त्रमें कह्या है ऐसे कहना शास्त्र श्रुतका अवर्णवाद है । बहुरि संघविर्षे कहे मुनि ते शूद्र हैं स्नान करैही नाही मललिप्त जिनका अंग है ए दिगम्बर अपवित्र हैं निर्लज्ज हैं, इहांही दुःख भोगवे हैं, परलोकवि कैसे सुखी होयेंगे इत्यादिक वचन कहना, संघका अवर्णवाद है ॥ सर्वार्थसिद्धि इहां संघ कहतां रत्नत्रयकार सहित च्यारिप्रकारके मुनिकू संघ कया है । तहां मुनि कहिये अवधिमनःपर्ययज्ञानी निका टीका ऋपि कहिये ऋद्धि जिनकू फुरी होय, यति कहिये इन्द्रियके जीतनहारे, अनगार कहिये सामान्य साधु ऐसे च्यारि भेद अ६१ हैं । इहां कोई पूछे, एकही मुनिकू संघ कैसें कहिये ? अनेक व्रतआदि गुणनिका समूह जामें है तातें एककै भी संघ पणा बणै है । बहुरि अहिंसाका लक्षण बहुरि केवली श्रुतकेवलीके आगमकरि कह्या है ऐसा धर्म है, ताकू कहै जिनका धर्म है सो गुणरहित है याके सेवनहारे असुर होयेंगे इत्यादिक कहना, सो धर्मवि अवर्णवाद है। बहुरि देव च्यारिप्रकारके पहले कहे तेही, तिनकू कहै देवता मांसाहारी हैं, मदिरा पीवें हैं, ऐसे कहिकरि तिनकी स्थापना करि जीव मारि तिनकू चढावै मदिरा चढावै इत्यादिक कहें करै सो देवनिका अवर्णवाद है । ऐसें गुणवान् महंतपुरुषनिविर्षे तथा तिनका प्रवृत्तिवि विना होते दोष आरोपणा करै, सो अवर्णवाद है। सो यातै मिथ्याश्रद्धानलक्षण जो दर्शनमोहकर्म ताका आश्रव होय है ॥ ___ आगें, मोहनीयकर्मका दूसरा भेद जो चारित्रमोह, ताके आश्रवके भेदकू सूत्र कहै हैं ॥ कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥ १४ ॥ याका अर्थ- कषायनिके तीव्रउदयतें तीव्रपरिणाम होय तातें चारित्रमोहनीयकर्मका आश्रव होय है। तहां आपकै अर परकै कषाय उपजावना बहुरि तपस्वीजनकू तथा ताके व्रतकू दूषण लगावना बहुरि जामें संक्लेशपरिणाम बहुत होय ऐसा भेप तथा व्रत धारणा इत्यादि तीव्रकषायनिके अनेक कार्य हैं, सो करने, ताकार कषायवेदनीयका आश्रव होय है।। । बहुरि नोकषायवेदनीयके कहे हैं । तहां सत्यधर्मकी हास्य करना, दीनजननिके मुखपरि हास्य करना, बहुतप्रलाप, निरर्थक हसना, हास्यहीका स्वभाव राखना ताकार हास्यवेदनीयका आश्रव होय है । बहुरि अनेकप्रकार क्रीडा करनेविर्षे तत्परपणां, व्रतशीलनिविर्षे अरुचिपरिणाम रतिवेदनीयका आश्रव है । बहुरि परके अरति उपजावना, परकी रतिका विनाश करना, पापीपणाका स्वभाव राखणा, पापीजनका संसर्ग करना इत्यादिकते अरतिवेदनीयके आश्रव होय हैं ।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy