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________________ सर्वार्थ सिद्धि इहां आदिशब्दकरि संयमासंयम अकामनिर्जरा बालतप लेणे । बहुरि योग कहिये समाधी सम्यक् चित्त लगावणा । भावार्थ- प्राणीमात्र तथा व्रतीनिविषै तौ करुणाभाव बहुरि दान बहुरि सरागसंयमादिक इनकेविषै तौ चित्त राखणा । बहुरि क्रोधादिपरिणामका अभाव सो क्षान्ति कहिये क्षमा है । बहुरि लोभके प्रकार जीवनेका लोभ, नीरोग रहनेका लोभ, इन्द्रिय बणी रहनेका लोभ, उपकरणवस्तुका लोभ ए हैं, तथा अपना द्रव्य न देना, परका द्रव्य लेणा, चोरि भी लेणा, पैलाकी घरी वस्तूकूं छिपावना इत्यादि अनेक प्रकार हैं, तिनका न करना सो शौच है ॥ टीका बहुरि इतिशब्द इहां प्रकार अर्थमें है, ताकरि अरहंतकी पूजा करवाविषै तत्परपणा तथा बाल वृद्ध तपस्वी मुनिनिका वैयावृत्य करना इत्यादिक लेणा । इहां प्रश्न, जो, भूतके कहनेते प्राणिमात्र तौ आयही गये, फेरि व्रतीका ग्रहण काहेकुं किया ? ताका समाधान जो, व्रतीकेविपैं अनुकंपाका प्रधानपणां जनावनेके अर्थ फेरि व्रतीका ग्रहण है । प्राणीनिकेविषै तौ सामान्यपणें होयही परंतु व्रतीनिकेविषै विशेषकरि होय । जैसें बडे आदमीकै हरेकसूं प्रीति होय है, परंतु अपना जिनतें प्रयोजन सधता होय ऐसें कुटुंब आदिक तिनतैं विशेषकर होय; तैसैं इहां भी जानना । ऐसें एते सातावेदनीयके आश्रवके कारण जानने । ऐसें ए परिणाम सर्वथा एकान्तवादी आत्माकूं नित्यही माने तथा अनित्यही माने हैं। तिनके मत में सिद्ध नाहीं होय हैं । जातैं सर्वथा नित्यकै तौ परिणाम पलटेही नाहीं । बहुरि सर्वथा अनित्य पूर्वापरका जोड नाहीं । तातें कैसे बने ? अ. ६ आगे तिस वेदनीयकेँ अनंतर कया जो मोहनीयकर्म ताके आश्रवके भेद कहनेयोग्य है । तातैं ताका भेद जो दर्शनमोह, ताके आश्रवके भेद कहनेकूं सूत्र कहें हैं ॥ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादी दर्शनमोहस्य ॥ १३ ॥ याका अर्थ -- केवली श्रुत संध धर्म देव इनका अवर्णवाद कहिये अणछते दोप कहने, ताकरि, दर्शनमोहकर्मका आश्रव होय है । तहां इंद्रियनितें जाननां बहुरि अनुक्रमतें जानना बहुरि कछु आडो आवै तब न जानै सो व्यवधान ताकूं अंतर भी कहिये । इनतें उल्लंघि जाके विना इन्द्रिय एककाल सर्व जाननेवाला ज्ञान होय सो केवली, ऐसें अरहंतभगवान तिनकूं कहै कवलाहार कर है विना आहार करै जीवे कैसें ! तया केवल आदि तथा तूवी आदि राखे है, तथा कालभेदकारी ज्ञान वर्ते है इत्यादिक वचन कहै सो केवलीनिका अवर्णवाद है । बहुरि तिन केवलीनिका भाष्या बुद्धिका अतिशय ऋद्धिकर युक्त जे गणधर तिनकरि ग्रंथरचनारूप किया सो श्रुत शास्त्र ताविपैं कहै मांसभक्षण मदिरापान करना वच निका पान २५६
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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