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________________ वचनिका टी का २५५ उपाय परपरिवाद कहिये परका अपवाद करना, पैशुन्य कहिये परतें अदेखसाभावकरि खोटी कहना, चुगली खाणी, परकी करुणा न करनी, परकै परिताप कहिये तीव्र पीडा उपजावनी, अंग उपांगका भेदन करना, मर्मकी ज्यायगां भेदन विदारण करना, परकू ताडन करना, परकै त्रास उपजावना, परका तिरस्कार करना, परकू भुलसना दडावना, परका अंग छोलना, काटना, श्वासनिरोध करना, बांधना, रोकना, मसलना, परकू बसमै राखना, स्वच्छंद रहने न देना, परकं वाहना, सर्वार्थसिद्धि वोझ आदि दे चलावना, परकू शरीरकू घसना, रगडना, परकी निंदा करणी, अपनी प्रशंसा करनी, सक्लेश उपजावना, बहु आरंभ करना, बहुपरिग्रह चाहना, परका प्राण हरणा, क्रूरस्वभाव राखणा, पापकर्मकी आजीविका करनी, अनर्थदंड विनाप्रयोजन पाप करना, आहारादिमें विष मिलावना, पांसी वागुरा जाल पीजरा मंत्र आदि जीवनिके घातका उपाय २ करना, शस्त्रनिका अभ्यास करना, पापमिश्रभाव राखना, पापी जीवनितूं मित्रता रावनी, तथा तिनकी चाकरी करनी, । तिनतें संभापण देने लेनेका व्यवहार करना, ए सर्वही असातावेदनीयके आश्रवळू कारण हैं ॥ आगें, असातावेदनीयके आश्रवके कारण तो कहे, बहुरि सातावेदनीयके आश्रवका कारण कहा है ऐसैं पूछे । सूत्र कहै हैं -- ॥ भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥ १२॥ याका अर्थ- भूत कहिये प्राणी अर व्रतवान् इनवि तौ अनुकंपा, बहार दान देना, सरागसंयम आदिक इनका योग कहिये समाधि भलेप्रकार चित्तका समाधानकार इनमें लगावणा चिंतवना, बहुरि क्षमा शौच बहुरि इतिशब्दतें अरहंतपूजादिक ए सर्व सातावेदनीयके आश्रवके कारण हैं । तहां कर्मके उदयके वशर्ते गतिगतिविर्षे वर्तता जो भूत कहिये प्राणिमात्र लेणे । बहुरि अहिंसादिकवत जिनके होय ते व्रती कहिये, ते घरके त्यागी तौ मुनि बहार घरहीमें अणुव्रत पाले ते श्रावक । बहुरि जो परके उपकारविर्षे आन्तिचित्त पैलाकी पीडाकू अपनेविर्षे भई ऐसे माननेवाले पुरुषके करुणाभाव होय, सो अनुकंपा कहिये । जो प्राणिमात्रवि तथा व्रतीनिवि अनुकंपा होय सो भूतब्रत्यनुकंपा कहिये । बहार परके उपकारकी बुद्धिकरि अपना धनादिक देना सो दान है । बहुरि संसारके कारण जे द्रव्यभावकर्म तिनके अभाव १ करनेविर्षे उद्यमी अर जिनके चित्तमें संसारके कारणकी निवृत्ति करनेका राग ते सराग कहिये, बहुरि प्राणी तथा ३ इन्द्रियनिविर्षे अशुभप्रवृत्तीका त्याग सो संयम कहिये, सो पूर्वोक्तसरागिनिका सयम सो सरागसंयम कहिये | रागसहित संयम सो सरागसंयम है ॥
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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