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________________ टीका पान २४९ lal ताकू कहिये, अव्रत तौ भावमात्र, है, ताकी प्रवृत्ति इन्द्रियादिकरूप है, सो कहे विना कैसे जानिये १ ताते इन्द्रिय कषाय । अव्रत क्रिया च्यायौंही कहना युक्त है ॥ ___आगें इहा कोई कहै है, जो, मन वचन काय योग हैं ते सर्व आत्माके कार्य हैं तातें सर्व संसारीजीवनिकै समान सर्वार्थ- हैं । तातें बंधका फल भोगनेमें विशेष नाहीं है । ऐसा कहतें कहै हैं जो, यह ऐसें नाहीं हैं । जाते योग सर्वही | वचसिछि |जीवनिकै पाईये हैं ॥ तौ तिन जीवनिके परिणाम अनंतभेद लिये हैं, सो ऐसा है सो कहिये हैं । ताका सूत्र निका अ६ ॥ तीव्रमंदज्ञाताज्ञात भावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥ ६॥ याका अर्थ-तीव्रभाव मंदभाव ज्ञातभाव अज्ञातभाव अधिकरण वीर्य इनके विशेषः तिस आश्रवका विशेष है। तहां । बाह्य अभ्यंतरके कारणके वश” उदयरूप भया जो उत्कट परिणाम सो तीव्र है । यात विपरीति जो उत्कट नाही, सो मंद हैं। यह प्राणी मैं मारूं ऐसें जानि मारनेकी प्रवृत्ति करै, सो ज्ञात ऐसा कहिये । मदतें तथा प्रमादते विना जाणिकरि प्रवृत्ति होय, सो अज्ञात है । जाविर्षे कार्य, अधिककरि कीजिये, सो अधिकरण है, याकू आधार भी कहिये तथा द्रव्य । कहिये । द्रव्यकी तिन शक्तिका विशेष, सो वीर्य है । भावशब्द प्रत्येक दीजिये। तब तीव्रभाव मंदभाव इत्यादि जानना। इनके विशेप” तिस आश्रवका विशेष है । जाते कारणके भेदते कार्यवि भी भेद होय है ऐसें जानना ॥ इहां भावार्थ ऐसा, जो, क्रोध' आदिके अतिबंधनेते तीव्रभाव होय है, तिन कषायनिके मंद उदयतें मंदभाव हो है ।। बहुरि या प्राणीकू मैं मारूं ऐसा परिणाम भी न होय अर प्राणी माया जाय ताहि जाणे जो यह माया गया तथा आप जाणिकरि मारै सो ज्ञातभाव है । बहुरि मदिरादिकके निमित्ततें. इन्द्रियनिका असावधान होना, सो मद तथा | असावधानीत प्रवर्तना प्रमाद है । इनके वशते विना जाणे प्रवृत्ति करना, सो अज्ञातभाव है। पुरुषका प्रयोजन जाकै आधार होय सो वस्तु द्रव्य अधिकरण है । द्रव्यकी शक्ति सो वीर्य है । बहुरि कषायनिके स्थानक असंख्यातलोकप्रमाण है । तातें जीवनिके, भाव, बहुत हैं । तातै तिनका अभावमें विशेष जानना । बहुरि अनुभागके भेदतें आश्रवनिविर्षे भी भेदसिद्धि होय है । इसहीत जीवनिकै शरीरादिकका ,अनंतपणा सिद्ध है । ऐसा भावार्थ जानना ॥ आगें पूछे है, जो, अधिकरण कह्या ताका स्वरूप जान्या नाहीं; सो ' कहौ । ऐसे पूछे तिस अधिकरणके भेदके है। हा प्रतिपादनके द्वारकार ताका स्वरूपका निर्णयके अर्थि सूत्र कहे हैं
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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