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परमपुश्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री १०८ शांतिसागर महाराजके आदेशसे श्री दिगंबर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्थाकी तरफसे ज्ञानदानके लिये छपी हुई
- श्रीवीतरागाय नमः ..
साथ
मिनि टीका
वीर संवत् २४८१ ] ॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः॥
[ग्रंथ प्रकाशन समिति, फलटण अथ तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धिटीका वचनिका पंडित जयचंदजी कृता
निका पान २४४
दोहा- मोह राग रुष भाव ये, निश्चय आश्रय तीनि ।
हति ध्यानी ज्ञानी भये, नमूं तिनहि गुणलीन ॥ १॥
ऐसे मंगलाचरणके अर्थि नमस्कार कार सर्वार्थसिद्धि नाम टीकाके अनुसार कहिये है। तहां पंचम अध्यायमें अजीवपदार्थका व्याख्यान किया । अब ताके अनंतर आस्रवपदार्थका व्याख्यान किया चाहिये । तातें तिस आस्रवपदार्थकी प्रसिद्धिके अर्थि सूत्र कहैं हैं
॥ कायवाङ्मनः कर्म योगः ॥ १॥ याका अर्थ- काय वचन मन इनका कर्म सो योग है। तहां काय आदि शब्दनिका अर्थ तो पहले कह्या था,, सोही जानना । बहुरि कर्मशब्दका अर्थ इहां क्रिया है। जातें कर्म अरु क्रियामें इहां भेद नाहीं है। ऐसे काय वचन मनकी क्रिया है सो योग है। तहां ऐसा जाननां, जो,
इहां भावार्थ ऐसा, जो, मनवचनकायके निमित्ततें आत्माके प्रदेशनिका चलना, सो योग है। बहुरि इहां वीयांतराय ज्ञानावरणका क्षयोपशमजनित लब्धिरूप शक्ति कही, सो इनका क्षय होतें भी कायवचनमनकी वर्गणाके निमित्तते सयोगकेवली आत्माके प्रदेशनिका चलना है, तातें तहां भी योग जानना ॥