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विवि / गढा करै उपाय, सो मायाक अर्थ प्रवर्तना, सो तथा अन्यपुरुष आरंभ" ऐसे ए पांच किय a / अत्यागरूप प्रवर्तन भले कर है इत्याद है ॥ ३ ॥ अन्य मिग्राहिकी किया हैं ॥१२ तहां आपके हर्ष हाय भई .
पान
आलस्यकार शास्त्रोक्तविधान करनेकेविर्षे अनादर करना सा अनाकांक्षाक्रिया है ॥ ५ ॥ ऐसें ए पांच क्रिया भई ॥ बहुरि छेदन भेदन बिगाडना आदि क्रियावि तत्परपणा तथा अन्यपुरुष आरंभ करै तहां आपके हर्ष होय, सो प्रारंभ
| क्रिया है ॥ १ ॥ परिग्रहकी रक्षाके अर्थि प्रवर्तना, सो • पारिग्राहिकी क्रिया हैं ॥ २॥ ज्ञानदर्शन आदिविर्षे कपटरूप ..ा प्रवर्तना ठगनेके उपाय, सो मायाक्रिया है ॥ ३ ॥ अन्य मिथ्यादृष्टिपुरुप मिथ्यात्वके कार्यवि प्रवतॆ है, ताळू प्रशंसाकरि सिद्धि गढा करै जैसे तू भलै करै है इत्यादिक कहना, सो मिथ्यादर्शनक्रिया है ॥ ४ ॥ संयमके घातककर्मके उदयके वश” निका टीका अत्यागरूप प्रवर्तना, सो अप्रत्याख्यानक्रिया है ॥ ५॥ ऐसें ए पांचक्रिया भई ए सर्व मिलि पचीस क्रिया भई ॥ एक
| इन्द्रियकू आदि देकरि हैं, ते कार्यकारणके भेदते भेदरूप भये संते सांपरायिककर्म के आश्रवके द्वार हो हैं । ___इहां इन्द्रिय कषाय अव्रत ती कारण हैं । बहुरि क्रिया हैं ते तिनके निमित्त होय हैं, तातें कार्य हैं । ऐसें भेदरूप
जाननै । इहां कोई कहै, इन्द्रिय कषाय अव्रत ए क्रियास्वरूपही हैं, तातै क्रियाके ग्रहणते ग्रहण भयेही, जुदे काहे। 12 कहे ! ताकू कहिये, जो, ऐसें नाहीं । जाते एकान्त नाहीं है । जो इन्द्रियादिक क्रियास्वभावही हैं । प्रथम तौ नाम
स्थापना द्रव्यरूप इन्द्रियादिक हैं, ते क्रियास्वभाव नाहीं हैं, अर आश्रवकू कारण हैंही, सो न्यारे कहे चाहिये । बहुरि ऐसा भी नही, जो, ए इन्द्रियादिक द्रव्याश्रवही हैं। भावाश्रवकर्मका ग्रहण है, सो पचीसक्रियातें होय है । जाते योगते
भया जो कर्मका ग्रहण ताकू द्रव्याश्रव मानिये है। तातें ऐसा है, जो इन्द्रियकपायाव्रत हैं ते कारणरूप भावाश्रव हैं | अर कार्यरूप पचीस क्रिया हैं । सो कारण कार्य दोऊही कहे चाहिये । इन कारणनिविना क्रिया होय नाही । अर | कारण विद्यमान रहे तेते क्रिया प्रवतेही । ए पचीस क्रिया कही ते संक्षेपरूप कही हैं । इनका विस्तार क्रियाकै स्थानक असंख्यातलोकमात्र हैं तिनका विशेष अगिले सूत्रमें ज्ञान अज्ञान तीव्र मंद भाव आदिकरि कहसी ॥
बहुरि कोई कहै, इन्द्रियतेंही सर्व आश्रव है । इनहीते लोक कपायादिकवि प्रवतॆ है, तातें कषायादिकका ग्रहण न चाहिये । ताकू कहिये, ऐसा नाही हैं। जाते इन्द्रियनिकी रागसहितप्रवृत्तिके कारण प्रमत्तगुणस्थानताईही है, कपायतें । आश्रव अप्रमत्तादिकविर्षे भी हैं । जो इन्द्रियही कहिये कपाय नही कहिये तो अप्रमत्तादिकवि आश्रव न ठहरै । बहार । एकेन्द्रियादि असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवनिपर्यंत यथासंभव इन्द्रियमनका अभाव होतें भी कोधादिनिमित्ततें आश्रव होय है सो।
न ठहरै । बहुरि कोई कहै कपायहीतें आश्रव है, ताते इन्द्रियादिक काहे कहना ? ताकू कहिये, सत्तारूप कषायकर्मका M सद्भाव उपशांतकपायवि भी है । ताके सांपराय आश्रवका प्रसंग आवै तथा योगनिमित्तक आश्रव तहां भी है, ताका || 1 अप्रसंग आवै है । तातें कपायमात्रही कहना युक्त नाहीं । बहुरि कोई कहै अबतही कहना, यामें इन्द्रियादि सर्व आगये।।
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Ma/ ऐसा भी नही, इन्द्रियादिक हैं, ते जाते एकान्त नाहावरूपही हैं, तातें किया होय हैं, तातें कार्य । Mer भया जो जो, ए इन्द्रियादिक यास्वभाव नाहीं हैं, जो इन्द्रियादिक क्रियागत ग्रहण भयेही, जन मा ।। al अर कार्यरूप पचासहण ता द्रव्याश्रव भावही हैं । भावाश्रवकर्म आश्रवकू कारण हेही, स्वभावही हैं । प्रथम काहे ।।
बालकमात्र हैं तिनका भवतही । ए पचीस ही कहे चाहिये शन्द्रयकपायानत हैं हाय है। जातें योगा एकेन्द्रियादिधमत्तादिकवि भी हैं ।ती हैं । जातें इन्द्रियानको लोक कपायादिकविर्षे प्रवते कहि, कहसी ॥
आश्रय असलाई कहिये, ऐसा नीहासर्व आश्रव है । इमहाज्ञान तीन मंद भाव | न ठहरे । वारसंक्षीपंचेन्द्रिय जीवनिपर्यंत बयही कहिये कपाय नही काहयक्ति के कारण प्रमत्तगुणस्थानादिकका ग्रहण न ।