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पान । २४७
॥ इन्द्रियकषायावतक्रियाः पंचचतुःपंचपंचविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः॥५॥ याका अर्थ- पहले कह्या जो सांपरायिक आश्रव ताके भेद- इंद्रिय पांच, कपाय च्यारि, अव्रत पांच, क्रिया
पचीस ए गुणतालीस भेद है । इहां इंद्रिय आदिनिके पंच आदिकी संख्याकरि यथासंख्य जानना । इंद्रिय पांच, कपाय सिदि
च्यारि, अव्रत पांच क्रिया पचीस ऐसें । तहां पंच इन्द्रिय तौ पहले कही थी सोही । बहुरि कपाय टीका क्रोध आदिक । बहुरि पांच अव्रत हिंसा आदिक आगे कहसी । बहुरि क्रिया पचीस कहिये हैं। तहां जो चैत्य गुरु अ६ 1 प्रवचननिकी पूजा करना इत्यादिक जो सम्यक्त्वकी बधावनेहारी क्रिया होय सो सम्यक्त्वक्रिया है ॥१॥ अन्य देवताका
स्तवनआदिरूप मिथ्यात्वको कारण प्रवृत्ति सो मिथ्यात्वक्रिया है ॥ २ ॥ कायआदिकरि गमनागमन आदिका प्रवर्तन, सो प्रयोगक्रिया है ॥ ३ ॥ संयमी पुरुपकै असंयमकै सन्मुखपणा, सो समादानक्रिया है ॥ ४ ॥ ईर्यापथगमन करना, सो ईर्यापथक्रिया है ॥ ५ ॥ ऐसें पांच ए क्रिया भई ॥
बहरि क्रोधके वशते पर दोष लगावनेकी प्रवृत्ति दुष्टस्वभावता, सो प्रादोपिकी क्रिया है ॥ १ ॥ दुष्टपनाके कार्य चोरी आदिका उद्यम करना, सो कायिकी क्रिया ॥ २ ॥ हिंसाके उपकरण शस्त्रादिकका ग्रहण, सो अधिकरणिकी क्रिया है ॥ ३ ॥ जाते आपकं परकू दुःख उपजै ऐसा प्रवर्तन, सो पारितापिकी क्रिया है ॥ ४ ॥ आयु इन्द्रिय बल उछ्वास निःश्वास जे प्राण तिनका वियोग करना, सो प्राणातिपातिनी क्रिया है ॥ ५ ॥ ऐसें ए पांच क्रिया ॥
बहुरि प्रमादि पुरुपकै रागभावका आदितपणातै रमणीकरूप देखनेका अभिप्राय सो दर्शनक्रिया है ॥ १ ॥ प्रमादके वशते स्पर्शनयोग्य वस्तुकेवि रागपरिणामतें प्रवृत्ति, सो स्पर्शनक्रिया है ॥ २ ॥ विषयके अपूर्व नवे नवे कारण आधार उपजावना, सो प्रात्ययिकी क्रिया है ॥ ३ ॥ जहां स्त्री पुरुष पशु बैठते प्रवर्तते होय तिस क्षेत्रमें मलमूत्र क्षेपणा, सो समंतानपातक्रिया है॥४॥ विनाझाड्या विनामर्दली पृथिवीउपरि काय आदिका निक्षेपण करना, सो अनाभोगक्रिया है ॥ ५॥ ऐसें ए पांच क्रिया ॥
बहरि परके करने योग्य क्रिया आप करै सो स्वहस्तक्रिया ॥ १ ॥ पापका जाकार आदानग्रहण होय इत्यादिक प्रवृत्तिका विशेषका भला जानना, सो निसर्गक्रिया है ॥ २ ॥ परका आचया जो सावध कहिये पापसहितकार्य आदिकका प्रगट करना, सो विदारण क्रिया ॥ ३॥ जैसे अरहंतकी आज्ञा है, तैसें आवश्यक आदिकी प्रवृत्ति चारित्रमोहके उदयतें आपसू कार न जाय ताका अन्यथा प्ररूपण करै सो आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है ॥ ४ ॥ साग्र कहिये कपट तथा