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अदेखसाभाव करना इत्यादि अशुभमनोयोग है । यातें उलटा शुभयोग है। तहां अहिंसा अस्तेय ब्रह्मचर्यादिक शुभकाययोग है। सत्यवचन हितमित भाषण आदि शुभवचनयोग है। अरहंतआदिवि भक्ति स्तवविर्षे रुचि शास्त्रआदिविर्षे विनय आदि प्रवृत्ति ए शुभमनोयोग हैं ॥ __इहां प्रश्न, जो, योगके शुभ अशुभ परिणाम कैसें १. ताका उत्तर, जो, शुभपरिणामकार निपज्या योग सो तौ शुभ है । बहुरि जो अशुभपरिणामकरि निपज्या सो अशुभयोग है । बहुरि शुभअशुभकर्मके कारणपणातें शुभअशुभयोग नाहीं
| निका हैं । सो ऐसा होय तौ शुभयोगही न ठहरै । जाते शुभयोग” ज्ञानावरणादि घातियाकर्म पापरूप हैं, तिनका भी आश्रव A होय है । तातें पापका कारण शुभयोग नाहीं ठहरै । तहां जो कर्म आत्माकू पवित्र करै, अथवा याकार आत्मा पवित्र २४६
होय ऐसैं पुण्य कहिये । सो सातावेदनीय आदिक हैं । बहार आत्मानें शुभते पाति कहिये राखै शुभरूप न होने दे। सो पाप है । सो असातावेदनीय आदिक हैं॥ ____ आगें पूछे है, जो, यह आश्रव सर्व संसारी जीवनिकै समानफलका कारण है, कि कछु विशेष है ? ऐसे पू॰ सूत्र कहै हैं
॥ सकषायाकषापयोः साम्परायिकर्यापथयोः ॥ ४ ॥ याका अर्थ-- कपायसहित जीवकै तौ सांपरयिक आश्रव होय है । बहार कषायरहित जीवकै, ईर्यापथ आश्रव य है । इहां स्वामीके भेदते आश्रवदि भेद है। तहां स्वामी दोय हैं, सकपायी जीव अपायी जीव । तहां कपाय जे क्रोधादिक ते कपायसारिखे हैं । जैसे फिटकडी लोध आदि कपायले द्रव्य होय हैं, ते वस्त्रके रंग लगनेकू कारण हैं, तैसैं | ए क्रोधादिक भी आत्माके कर्म लेपके कारण हैं । ताते इनकू भी कपाय कहिये हैं । ऐसें कपायनिकार सहित होय ताकू सकपायी कहिये । बहुरि कपायरहित होय सो अकपायी है । बहुरि संपराय नाम संसारका है, सो जाका संसार प्रयोजन है ऐसा जो कर्म ताकू सांपरायिक कर्म कहिये । बहुरि ईर्याभाव योगनिकी गतिका है तिसहीकार कर्म आवै, ताळू ईर्यापथकर्म कहिये । इनका यथासंख्य संबंध करना। तहां सकपायी मिथ्यादृष्टीकू आदि देकरि जीव हैं, तिनकै
तौ सांपरायकर्मका आश्रव होय है । बहार कपायरहित जीव हैं, जो, उपशांतकपायकू आदि देकरि तिनके ईर्यापथकर्मका म आश्रव होय है ॥ इहां भावार्थ ऐसा, जो, सकपायी जीवके तौ कर्मकी स्थिति अनुभाग पडै है । बहुरि अकपायी जीवकै स्थिति अनुभाग नाहीं । एकसमय मात्र आश्रव होय, तिसही समय झडि जाय है ॥
आगें आदिमें कह्या जो सांपरायिक आश्रव ताके भेद कहन सूत्र कहै हैं