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वचनि का
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जाते जाका प्रयोजन नाहीं । बहुरि ऐसा नाहीं, जो, वस्तुमें धर्म नाहीं । ताळू गौणकार विवक्षातें करै है। जाते | विवक्षा तथा अविवक्षा दोऊही सत्की होय है । तातें सत्रूप होय ताकू प्रयोजनके वशतें अविवक्षा करिये सो गौण है । तातें दोऊमें वस्तुकी सिद्धि है । यामें विरोध नाहीं है । इहां उदाहरण, जैसे पुरुषके पिता पुत्र भ्राता भाणिजो
इत्यादि संबंध हैं ते जनकपणां आदिकी अपेक्षातै विरोधरूप नाहीं । जाते अर्पणके भेदत पुत्रकी अपेक्षा तो पिता कहिये । पार्थमिदि
बहुरि तिसही पुरुपकू पिताकी अपेक्षा पुत्र कहिये भाईकी अपेक्षा भाई कहिये मामाकी अपेक्षा भाणिजो कहिये इत्यादि । टीका तैसेंही वस्तुकी सामान्य अर्पणातें नित्य कहिये । विशेप अर्पणातें अनित्य कहिये । यामें विरोध नाहीं। बहुरि ते सामान्यअ ५० विशेष हैं। ते कथंचित् भेद अभेदकरि व्यवहारके कारण होय हैं ।
इहां सत् असत् एकानेक नित्यानित्य भेदाभेद इत्यादि अनेक धर्मात्मक वस्तुके कहने में अन्यमती विरोध आदि दूपण बतावै हैं । तहां सत् असत् दोऊ एकवस्तुवि कहिये तो दोऊ प्रतिपक्षी हैं, तिनकै विरोध आवैही । तथा दोऊनिका एक आधार कैसे होय ? तातें वैयधिकरण्य दूपण आवै है । दोऊकै एक आधारका अभाव है। बहुरि परस्पराश्रय कहिये सत असत्कै आश्रय कहिये, तो पहले असत् होय तौ आश्रय बणै । सो असत्कुं सत्कै आश्रय कहतें पहली सत् नाहीं है । ऐसें दोऊका अभावरूप परस्परआश्रय नामा दूषण है। बहुरि सत् काहेकारे है ? तहां कहिये असत्कार है । तहां पूछिये है, असत् काहेकार है तहां कहैं ? अन्य सत्करि । फेरि पूछिये है, अन्य सत् काहेकार है ? तहां कहै, अन्य असत्कार । ऐसैं कहूं ठहरना नाहीं । तातें अनवस्थादूपण है । बहुारे सत्में असत् मिले असत्में सत् मिलै, तब व्यतिकरदूपण है । बहुरि सत्तें असत् होय जाय, असत्तें सत् होय जाय, तहां संकरदूपण है । बहुरि सत्की प्रतिपत्ति होय तहां असत्की प्रतिपत्ति नाहीं । असत्की प्रतिपत्ति है, तहां सत्की प्रतिपत्ति नाहीं। ऐसैं अप्रतिपत्तिदूपण है। बहरि सत् होते असत्का अभाव, असत् होते सत्का अभाव, ऐसे अभाव नामा दूषण है । ऐसेंही ए आठ दूपण सर्व विरुद्धपक्षमें आवे हैं । तातै विरोधरूप अनेकधर्मस्वरूपकी सिद्धि नाहीं ॥ | ऐसैं दूपण बतावै । ताकू कहिये, जो, ये दूषण जे सर्वथा एकान्तपक्षकरि ऐसे अनेकधर्म वस्तु कहैं, तिनकै आवै हैं । बहुरि अनेकधर्मविरुद्वरूप एकवस्तुमें संभव हैं, तिनकू द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयकी अर्पणका विधानकरि प्रयोजनके वशते मुख्य गौणकरि कहिये । तामें दूपण नाहीं । स्याद्वाद बडा बलवान है, जो, ऐसें भी विरोधरूपकू अविरोधरूपकार कहै है। सर्वथा एकांतकी यह सामर्थ्य नहीं, जो, वस्तुकू साधे । जैसा कहेगा, तैसेंही दूपण आवेगा । तातै स्याद्वादका ‘सरणा ले वस्तुका यथार्थज्ञानकरि श्रद्धानकरि हेयोपादेय जानि हेयतें छटि उपादेयरूप होय वीतराग होना योग्य है, यह श्रीगुरुनिका उपदेश है।