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एक है सोही द्रव्य है । ताके अनंतपर्याय हैं । द्रव्यपर्यायकी न्यारी न्यारी दोय सत्ता नाहीं हैं। बहुरि एकान्तकार Bा ध्रौव्यही सत् कहिये तो उत्पादव्ययरूप प्रत्यक्ष व्यवहारकै असत्पणां आवै । तब सर्व व्यवहारका लोप होय । । उत्पादन्ययरूप रूपही एकान्तकरि सत् कहिये तो पूर्वापरका जोडरूप नित्य भाव विना भी सर्वव्यवहारका लोप होय । तातें
त्रयात्मक सत्ही प्रमाणसिद्ध है, ऐसाही वस्तुस्वभाव है, सो कहनेमें आवै है ॥ सार्थसिदि
RI आगें पूर्छ है कि 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस सूत्र में नित्य कथा, सो नित्यका स्वरूप न जान्या, सो कहीं। टीका का ऐसैं पूछे सूत्र कहै हैं
निका
पान
॥ तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥३१॥ याका अर्थ-- तद्भाव कहिये जो पहले समय होय सोही दूसरे काल होय सो तद्भाव है, सोही नित्य कहिये । जोर 1 पूर्वं था सोही यहू अब वर्तमानमें है ऐसा जोडरूप ज्ञान सो प्रत्यभिज्ञान कहिये । तिसका कारण जो वस्तुमें भाव सो । तद्भाव कहिये । यह प्रत्यभिज्ञान है । सो विना हेतु अकस्मात् न होय है। वस्तुमैं तद्भाव है ताकू जाने है, ताते यह सिद्ध
होय है, जो, जिस स्वरूपकरि पहले वस्तु देख्या तिसही स्वरूपकार वर्तमानविर्षे भी देखिये है। जो पहले था, ताका | अभावही भया मानिये । बहुरे नवा ही उपज्या मानिये तो स्मरणका अभाव होय, तब जो स्मरणके आधीन लोकव्यवहार
सो विरोध्या जाय है । तातें ऐसा निश्चय है, जो, तद्भावकरि अव्ययरूप है सो नित्य है । सो यहू कथंचित् जानना । सर्वथा नित्य कहतें कूटस्थके पर्याय पलटनेका अभाव ठहरै है । सो तब संसार तथा तिसकी निवृत्तिके कारणके विधानका विरोध आवै । इहां तर्क, जो, सोही वस्तु नित्य सोही अनित्य ऐसें कहनेमें तौ विरोध है । ताका समाधान करै है, जो, यह विरोध नाहीं है । जातें ऐसा कहिये है, ताका सूत्र कहै हैं
॥ अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥ ३२॥ याका अर्थ- अर्पित कहिये जो मुख्य करिये सो, तथा अनर्पित कहिये जो गौण कारये सो इन दोऊ नयकार: अनेकधर्मस्वरूप वस्तुका कहना सिद्ध होय है । तहां अनेक धर्मस्वरूप जो वस्तु तार्के प्रयोजनके वशतें जिस कोई एकधर्मकी विवक्षाकरि पाया है प्रधानपणा जाने सो अर्पित कहिये ताकू उपनीत अभ्युपगत ऐसा भी कहिये । भावार्थजिस धर्मकू वक्ता प्रयोजनके वशतें प्रधानकार कहै सो अर्पित है, यातें विपरीत जाकी विवक्षा न कार सो अनर्पित है।
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