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________________ पर्वार्थ ३ ती आकाशकू अवगाहै हैं, तिनकी अपेक्षा तौ अवकाशदान मुख्य है । बहुरि धर्म आदिक नित्यसंबधरूप निष्क्रिय द्रव्य हैं, तिनकी अपेक्षा गौण हैं। बहुरि कोईवादी तो आकाशकू अनावरणमात्र अवस्तु कहै है, भीति आदि आवरण दूरि भये अवकाश अनावरण भया सो शून्य है, कछु वस्तु नाहीं । सो यह कहना अयुक्त है । आवरण दूरि भये अवशेप भी परोक्ष वस्तु होय वचसिदि|| है । बहुरि कोई आकाशका शब्द गुण कहै है । सो यह भी अयुक्त है। शब्द इंद्रियगोचर है, सो मूर्तिक पुद्गल निका टीका द्रव्यका पर्याय है, आकाश अमूर्तिक है, सो अमूर्तिकका गुण मूर्तिक होय नाहीं । बहुरि कोई अवगाहकू प्रधानका परि- पान णाम कहै है। सो यहू अयुक्त है । जातें प्रधानका विकार घट आदिके अनित्यपणा असर्वगतपणा अमूर्तिकपणा है, तैसें । २२० आकाशकै नाहीं, तातें प्रधानका धर्म नाहीं । इत्यादि युक्तितै पूर्वोक्त अवगाहधर्मस्वरूप आकाश कह्या, सोही प्रमाणसिद्ध है। आगै आकाशका तौ उपकार कह्या; अब ताके लगतेही कहे जे पुद्गलद्रव्य तिनका कहा उपकार है ? ऐसे पू॰ सूत्र कहें हैं ॥ शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १९ ॥ याका अर्थ-- शरीर वचन मन प्राण कहिये उच्छास अपान कहिये निःश्वास ये पुद्गलद्रव्यके जीवकू उपकार । हैं । इहां तर्क, जो, पुद्गलका उपकारका प्रश्न किया था, तुम पुद्गलका लक्षण कह्या, शरीर आदि तो पुद्गलमयी हैं सो यह सूत्र कहना अयुक्त है। ताका समाधान, जो, यह अयुक्त नाही हैं । पुद्गलका लक्षण तो आगे कहेंगे। यह तौ जीवनिकै पुद्गलनिका उपकारही कहनेकै अर्थि सूत्र है । इहां उपकारहीका प्रकरण है । तहां शरीर तौ औदारिक आदि । कर्मकी प्रकृतिरूप कहे ते तो सूक्ष्म हैं, तातै इन्द्रियगोचर प्रत्यक्ष नाहीं हैं । बहुरि तिनके उदयकरि भये ऐसे नोकर्मसंचयरूप ते केई इन्द्रियगोचर प्रत्यक्ष है । केई इन्द्रियगोचर प्रत्यक्ष नाहीं । तिनके कारण कर्मप्रकृतिरूप शरीर है । सो भी इहां गिण लेने। सो गरीर पुद्गलमयी हेही । ऐसें जीवनिकै ए होय हैं। तातै पुद्गलके उपकार कहिये । RI इहां उपकार शब्दका अर्थ भला करणाही न लेना। विविध कार्यकं निमित्त होय ताकं उपकार कहिये है ॥ इहां कोई पूछे, कार्मणशरीर तो आकाररहित है, सो पुद्गलमयी नाहीं । आकारवान् होय ताकू पुदलमयी कहना युक्त है । ताकू कहिये, यह युक्त नाहीं है । कार्मण भी पुदगलमयीही है । तातें ताका उदय है सो मूर्तिवानके निमित्तते पचिकार उदय प्रवत है । जैसे तंदुल हैं, ते जल आदिके संबंधकरि पचै हैं, ते दोऊ पुद्गलमयी हैं । तैसेंही
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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