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सर्वार्थ-18
सिद्धि
निका
टीका
पान
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2' कार्मण भी गुड कंटक मूर्तिकद्रव्यकरि पकै है । गुड बोर झडी आदिका दारू बणै, ताकू पीवै तब चित्त विभ्रमरूप होय । ।
तहां ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अंतराय कर्मका उदय आया जानिये । तथा गुड खाये सुख भया, तहां साता10 वेदनीयका उदय आया कहिये । कांटा लागै तब दुःख होय, तब असाताका उदय आया कहिये । इत्यादि बाह्य मूर्तिकद्रव्यके संबंधतै पचिकरि उदय आवै है, तातें कार्मण पुद्गलमयी है ॥
वचबहुरि वचन दोयप्रकार है। द्रव्यवचन भाववचन । तहां वीर्यान्तराय मतिश्रुतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम होते अंगोपांग नामा नामकर्मके उदयतें आत्माकै बोलनेकी सामर्थ्य होय, सो तौ भाववचन ह । सो पुद्गलकर्मके निमित्ततें भया तातें पुद्गलका कहिये । बहुरि तिस बोलनेकी सामर्थ्यसहित आत्माकरि कंठ तालुवा जीभ आदि स्थाननिकरि प्रेरे जे पुद्गल, ते दचनरूप परिणये ते पुद्गलही हैं । ते श्रोत्र इन्द्रियके विषय हैं, और इन्द्रियके ग्रहणयोग्य नाहीं हैं । जैसे घ्राण इंद्रियका विषय गंधद्रव्य है । तिस घ्राणकै रसादिक ग्रहणयोग्य नाहीं हैं तैसें । बहुरि कोई अन्यमती कहै है, वचन मूर्तिक हैं । सो अयुक्त हैं । इह वचन मूर्तिक जे इन्द्रिय ताके तौ ग्रहणमें आवै है । बहुरि मूर्तिककार रुकि जाय है । बहुरि मूर्तिककार बिगडि जाय है। बहुरि मूर्तिकके धक्केः तिरस्कार होय है । अन्यदिशातें अन्यदिशाकू चल्या जाय है । तातें अमूर्तिक नाही-मूर्तिकही है । बहुरि मन दोयप्रकार है । द्रव्यमन भावमन । तहां ज्ञानावरण वीर्यातराय क्षयोपशमतें पाया जो गुणदोषविचारस्मरणकी शक्तिरूप लब्धि तथा उपयोग सो तौ भावमन है, सो तौ पुद्गलकर्मके
क्षयोपशमतें भया, तातें पुद्गलका कहिये । बहुरि तिस भावमनकरि सहित आत्माकै अंगोपांगनामकर्मके उदयतें तिनि १ गुणदोषविचारस्मरणके उपकारी जे मनपणाकरि परिणये पुद्गल ते पुद्गलमयी हैही ॥
इहां कोई अन्यमती कहै है, जो, मन तौ न्यारा द्रव्य है, रूपादिपरिणामरहित है, अणुमात्र है, ताकू पुद्गलमयी कहना अयुक्त है । ताकू कहिये ९ कहना युक्त है । ताकू पूछिये, तेने मन न्यारा द्रव्य कह्या सो इन्द्रियकरि तथा आत्माकार संबंधरूप है, कि असंबंधरूप है? जो असंबंधरूप है, तौ आत्माका उपकारी कैसे होय ? तथा इन्द्रियनिका मंत्रीपणां कैसैं करै ? बहुरि संबंध है तो यह अणुमात्र बताया लो आत्माके तथा इन्द्रियके एकप्रदेशमें रहता, अन्यप्रदेश-|| निविर्षे उपकार नाहीं करै । बहुरि कहै, जो, आत्माके अदृष्टगुणके वशते याका आलातचक्रकी ज्यों सर्वप्रदेशनिमें परिभ्रमण है । ताकू कहिये, जो, आत्माका अदृष्टगुण तो आत्माकी ज्यों अमूर्तिककी है, क्रियारहित है । सो ऐसा होते अन्यवस्तुविर्षे क्रिया करावनेकी सामर्थ्यरहित है। जो आप क्रियावान् स्पर्शवान् पवन है सो अन्य वनस्पति आदिको चलावनेका कारण देखिये है । अदृष्टगुण है सो पवनकी ज्यौं नाहीं । तातें अन्यविर्षे क्रियाका कारण नाहीं ॥