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सर्वार्थ
निका पान २१५
ऐसें लोकशब्दकै अधिकरणसाधन सन् प्रत्यय है । ऐसें आकाशके दोय भेद भये हैं, लोकाकाश अलोकाकाश। सो लोक जामैं है सो तौ लोकाकाश है यातै बाहिर अलोकाकाश । सो सर्वतरफ अनंत है । ऐसें लोकालोकका विभाग धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकायके सद्भाव अभावतें जानना । जो धर्मास्तिकाय न होय तौ पुद्गलजीवनिके गमनके नियमके कारणके अभावते लोकालोकका विभाग न होय । तथा अधर्मास्तिकाय न होय तो स्थितिके आश्रयके निमित्तके अभा
वतें स्थितिका अभाव होय तब भी लोकालोकविभागका अभाव होय । तातै तिन दोऊके सद्भावतेंही लोक अलोककी टी का विभागसिद्धि होय है ॥ आगें, लोकाकाशवि जिनका अवगाह है, तिनके अवस्थानवि विशेष है, ताके जाननेकू सूत्र कहैं हैं
॥ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३ ॥ याका अर्थ-- धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य इन दोऊनिका अवगाह समस्तलोकाकाशमें है । इहां कृत्स्न ऐसा वचन है सो सर्वलोकविर्षे व्याप्तिके दिखावनकू है । जैसे घरकेविर्षे घट तिष्ठ, तैसें ए धर्म अधर्म द्रव्य लोकमें नाहीं तिष्टे हैं। जैसे तिलनिविर्षे तेल तिष्ठै तैसें व्यापक हैं । बहुरि इनकै अवगाहनकी सामर्थ्यके योगते परस्पर प्रदेशके प्रवेशतें व्याघात नाहीं है । जातें ये अमूर्तिक हैं । मूर्तिक भी एकपात्रवि जल भस्म धूलि घालिये तिनकै परस्पर व्याघात नाहीं हो
है, तो अमूर्तिककै कैसे होय ? बहुरि अनादित संबंध है, तातें अविरोध है ॥ B आगें, मूर्तिक जे पुद्गलद्रव्य तिनकै एकप्रदेशतें लगाय संख्यात असंख्यात अनंत प्रदेशताईके स्कंध हैं, तिनके अवR-गाहके विशेष जानन... सूत्र कहै हैं
॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥ याका अर्थ-- पुद्गलद्रव्यका अवगाह आकाशके लोकके एक प्रदेशतें लगाय असंख्यात प्रदेशतांई एक दोय आदि भाज्यरूप प्रदेशनिविर्षे है ॥ इहां एकप्रदेशादिषु इसका समास अवयवकरि किया है, तातें समुदाय जानना । तहां एकप्रदेश भी लेणा । सोही कहिये है । एक आकाशके प्रदेशवि एक परमाणुका भी अवगाह है । बहुरि दोय आदि संख्यात असंख्यात अनंतके स्कंध सूक्ष्म परणाये तिनका भी है । बहुरि दोय परमाणु खुली तथा बंधीका दोय प्रदेशमें अवगाह है। बहुरि तीनि आदि संख्यात असंख्यात अनंतके स्कंधनिका भी है । बहुरि तीनि प्रदेशनिविर्षे तीनि परमाणु