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विदि.
वचनि का पान २१२
अ.५
Vता असंख्यातप्रदेशी हैं । तहां धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य ए दोऊ तौ क्रियारहित सर्वलोकाकाशमें व्यापि तिष्ठै हैं । वहुरि जीव है |
सो तिनकी बराबरी है । सो तौ संकोचविस्तारस्वभाव है। सो कर्मकरि रच्या शरीर छोटा तथा बडा पावै, तिसप्रमाण
होय तिष्ठै है । बहुरि जब केवलसमुद्धातकार लोकपूरण होय है तब मेरुकै नीचें चित्रापृथिवीका वज्रमयी पटलकै मध्य सर्वार्थ
जीवका मध्यका आठ प्रदेश निश्चल तिष्ठै है । बहुरि अन्य प्रदेश ऊर्ध्व अधः तिर्यक् समस्तलोकमें व्यापै है।
___ आगें पूछ है, आकाशके केते प्रदेश हैं ? ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं-- टीका
॥आकाशस्यानन्ताः॥९॥ याका अर्थ- आकाशद्रव्यके अनंत प्रदेश हैं । जाका अंत न होय ताक़ अनंत कहिये । ऐसे गणनामानकार आकाशके अनंतप्रदेश हैं। इहां प्रश्न, जो, अनंतके प्रमाणकू सर्वज्ञ जानै है, कि नाही ? जो जान्या है, तो अनंत कैसे कहिये ? बहुरि न जान्या है, तौ सर्वज्ञ कैसें कहिये ? ताका समाधान, जो, सर्वज्ञका ज्ञान क्षायिक है सातिशय है, तातें ताकू जानकरि अनंत कह्या है । जाके ज्ञानमें तौ सान्तही है, परंतु गणना करि अनंत है । अथवा अनंत ऐसा गणनाकू सर्वमतके माने हैं । कोई कहै लोक धातु अनंत है । कोई कहै हैं, दिशा काल आत्मा आकाश अनंत हैं । केई कहै है, प्रकृति पुरुपकै अनंतपणा है । तातें ऐसा न कहिये, जो, अनंतपणा जाकू न जानिये सो है । अरु जाकू जानिये ताकू अंतसहित कहिये ॥
इहां अन्यमती कहै, जो, आकाश सर्वगत है, तातें निरंश है । तारूं कहिये, यह अयुक्त है । तातें ऐसा नियम नाहीं, जो सर्वगत होय सोही निरंश होय, परमाणु असर्वगत है सो भी निरंश होहै । बहुरि जैसे वस्त्र बडा होय ताकू गज आदिकरि मापिये तब एकही वस्त्र बहुत गजका कहिये, तब अंशसहित भी भया अरु निरंश भी भया । बहुरि तिसही वस्त्रवि अनेक जुदी जुदी जायगा जुदी जुदी वस्तु देखिये तब जुदा जुदा अंश प्रगट देखिये है; तैसें आकाश भी सर्वगत है, तो परमाणुद्रव्यकरि मापिये तब अनंत अंश होय तिनकू अनंतप्रदेश कहिये । तब अनेक घट मंदिर ग्राम नगरादि जामें वर्से हैं तहा घटका आकाश ग्रामका आकाश नगरका आकाश ऐसा देखिये है । तातें एकही आकाश द्रव्यनयकरि एक है निरंश है, पर्यायनयकार अंशसहित है ॥
इहां कहै, जो, ए तो कल्पना है, कल्पित अंश है। ताकू कहिये, जो, सर्वथा कल्पितही कहिये तो अनंत वस्तुका संबंधी जुदा जुदा न होय, जहां घटका आकाश कहिये तहां सर्व वस्तुका आकाश तेताही ठहरै । सो यह बडा दोप आवै ।
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