SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वार्थ टीका ...50 11 संबंध भी अनेकरूप है । जैसें कर्मके संबंधते जीवस्थान गुणस्थान मार्गणास्थानरूप होय है, तैसें अन्यकी अपेक्षाकरि । व्यक्त भये भाव तिनका घटनाबधनाकरि अनेकरूप है। तथा अतीत अनागत वर्तमान कालके संबंधते अनेकप्रकार हैं। तथा उत्पादव्यपणाकरि अनेकरूप हैं ॥ ___ बहुरि अन्वयव्यतिरेकपणाकरि अनेकप्रकार है । तहां अन्वय तौ गुणके आश्रय कहिये, व्यतिरेक पर्यायके आश्रय || व चसिद्धि | कहिये । ऐसें एक अनेकस्वरूप जीव नामा पदार्थ है सो शब्दकरि जाकू कहिये तहां सकलादेश विकलादेशकरि दोय । | निका प्रकारकरि कह्या जाय है । तहां सकलादेश तौ प्रमाण कहिये, विकलादेश नय कहिये। तहां काल आदि आठ भाव पूर्वै । || ૨૦૨ प्रथम अध्यायमें कहे हैं, तिनिकरि अभेदवृत्ति अभेदउपचार तथा भेदवृत्ति भेदोपचारकरि द्रव्यार्थिकके पर्यायाथिकके प्रधानगौणपणाकरि कहिये है। ताके सात भंग अस्तिनास्ति आदि कहे ते पहले अध्यायमें उदाहरण सहित कहे है, तहांतें जानने ॥ इहा कोई वादी तर्क करै है, जो, वस्तु एक भी कहिये अनेक भी कहिये । ऐसें तौ विरोध नामा दूपण आवै है। ताका समाधान, जो, विरोध तीनिप्रकार है । वध्यघातकस्वभावरूप सहानवस्थानरूप प्रतिबंध्यप्रतिबंधकस्वरूप । तहां न्यौलाके | सर्पकै, जलके अग्निकै तौ वध्यघातकस्वभावरूप विरोध है । सो तो एककाल विद्यमान होय अरु तिनका संयोग होय | तब होय । सो जो बलवान् होय सो दूसरे निर्बलकू बांधे । सो इहां अस्तिनास्ति एक वस्तुवि समानवल है । सो वध्यघातकविरोध समानवलके नाही संभवै । बहुरि सहानवस्थानलक्षण विरोध आम्रके फलकै हरितभाव पीतभावके है । दोऊ वर्ण साथि होय नाही । सो यहू विरोध भी अस्तित्वनास्तित्व एकवस्तुमें एकही काल है । तातें संभवै नाही । जो भिन्नकाल होय तो जिसकाल जीववस्तुवि4 अस्तित्व होय तिसकाल नास्तित्व न होय तो सर्ववस्तु जीवस्वरूप एक ठहरै । बहुरि नास्तिक काल अस्तित्व न मानिये तो बंध मोक्ष आदिका व्यवहार न ठहरै। तातै सहानवस्थानलक्षण विरोध भी नाही संभवै । बहुरि प्रतिबंध्यप्रतिबंधकरूप विरोध फलके अरु वीटके है। जेतें संयोग है जेतें फल भाज्या होय सो भी प. नाही । जाते वीट फलका प्रतिबंधक है, फलफू पडने दे नाही । सो ऐसा विरोध भी अस्तित्व नास्तित्वकै नाही है । अस्तित्व तौ नास्तित्वके प्रयोजनकू रोकै नाही । नास्तित्व अस्तित्वके प्रयोजनकू रोके नाहीं । इन दोऊनिका प्रयोजन जुदा जुदा है । ताते इनके वचनमात्र विरोध है सो विरोधकुं नाहीं साधै है, ऐसें जानना ॥ ऐसे चौथे अध्यायवि च्यारि निकायरूप देवनिके स्थानके भेद, सुखादिक, जघन्य उत्कृष्ट स्थिति, लेश्यादिक निरूपण किये ॥
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy