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निका
आगें इन ज्योतिषीनिके संबंधकरि व्यवहारकालका जानना है तिसके अर्थि सूत्र कहे है
॥ तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥ याका अर्थ-- इन ज्योतिपी देवनिकरि किया कालका विभाग है । इहां तत्का ग्रहण गतिसहित ज्योतिष्क देवनिके
कहनेके आर्थि है । सो यह व्यवहारकाल केवल गतिहीकरि तथा केवल ज्योतिपीनिकरि नाहीं जाना जाय है । गतिसिदिमा
सहित ज्योतिपीनिकरि जाना जाय है । तातें गमन तो इनका काहूकू दीखै नाहीं । बहुरि गमन न होय तो ये थिरही
रहें । तातें दोऊ संबंध लेना । तहां काल है सो दोयप्रकार है । व्यवहारकाल निश्चयकाल । तिनमें व्यवहारकालका BI विभाग इन ज्योतिपीनिकरि किया हुवा जानिये है । सो समय आवली आदि क्रियाविशेपकरि जाना हुवा व्यवहारकाल है । सो नाही जाननेमें आवै ऐसा जो निश्चयकाल ताके जानने कारण है सो निश्चयकालका लक्षण आगे कहसी, सो जानना ॥
आगें मनुष्यलोकतै बाहिर ज्योतिष्क अवस्थित हैं । ऐसा कहने सूत्र कहैं हैं
पान
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॥ बहिरवस्थिताः ॥ १५॥ याका अर्थ- वहिः कहिये मनुष्यलोकतै बाहिर ते ज्योतिष्क अवस्थित कहिये गमनरहित हैं । इहां कोई कहै है, पहले सूत्रमैं कह्या है जो, मनुष्यलोकतै ज्योतिष्कदेवनिके नित्य गमन है । सो ऐसा कहनेहीते यह जाना जाय है, जो, यात बाहिरकेके गमन नाही । फेरि यह सूत्र कहना निष्प्रयोजन है । ताका समाधान, जो, इस सूत्रतें मनुष्यलोकतै बाहिर अस्तित्व भी जाना जाय है। अवस्थान भी जान्या जाय है, यात दोऊ प्रयोजनकी सिद्धिके आर्थि यह सूत्र है अथवा
अन्यप्रकारकरि गमनका अभाव हैके अर्थि तथा कदाकाल गमनका अभावके अर्थि भी यह सूत्र जानना ॥ | आर्गे चौथे निकायकी सामान्यसंज्ञा कहनेकू सूत्र कहै हैं
॥ वैमानिकाः ॥ १६ ॥ याका अर्थ- वैमानिक ऐसा तो अधिकारकै अर्थि ग्रहण है । याके आगे कहसी तिन वैमानिक जानिये ऐसा अधिकार है। बहुरि पुण्यवाननिकं विशेपकार माने ते विमान हैं। तिनमें जे उपजै ते वैमानिक हैं। बहुरि ते विमान
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