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________________ सर्वार्थ वच. सिद्धि टीका १४ १८७ योजन ऊपरि जाय तारानिके विमान विचरै हैं । ते सर्व ज्योतिषिनिके नीचे जाननां । इनतें दश योजन ऊपरि जाय सूर्यनिके विमान विचरे हैं । तातें अशी योजन ऊपरि जाय चंद्रमानिके विमान हैं । तातें तीनि योजन ऊपर जाय नक्षत्रनिके विमान हैं। तात तीनि योजन ऊपर जाय बुधनिके विमान हैं । तातें तीनि योजन ऊपर जाय शुक्रनिके विमान हैं । तातें तीनि योजन ऊपर जाय बृहस्पतीके विमान हैं । तातें चारि योजन ऊपर जाय मंगलके विमान हैं। ताते चारि योजन ऊपर जाय शनैश्चरके विमान हैं। यह ज्योतिष्कमंडलका आकाशमें तले ऊपरि एकसौ दश योजनमाही जाननां, बहुरि तिर्यविस्तार असंख्यात द्वीपसमुद्रनिप्रमाण घनोदधिवातवलयपर्यंत जाननां । इहां उक्तंच गाथा है ताका अर्थ- सातसैं नवै, दश, अशी, च्यारि, त्रिक, दोय, चतुष्क ऐसे एते योजन अनुक्रमतें । तारा । ७९० । सूर्य । १० चंद्रमा । ८० । नक्षत्र । ३ । बुध । ३ । शुक्र । ३। बृहस्पति । ३ । मंगल । ४ । शनैश्चर । ४। इनका विचरना जानना ॥ आगें ज्योतिषीनिका गमनका विशेष जाननेके अर्थ सूत्र कहैं हैं ॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥ याका अर्थ- मेरुप्रदक्षिणा ऐसा वचन है, सो गमनका विशेष जानने है । अन्यप्रकार गति मति जानूं । बहुरि नित्यगतयः ऐसा वचन है, सो निरंतर गमन जनावनेके आर्थि है । बहुरि नृलोकका ग्रहण है, सो अढाई द्वीप दोय समुद्र में नित्यगमन हैं । अन्य द्वीपसमुद्रनिमें गमन नाहीं । इहां कोई तर्क करै है, ज्योतिषी देवनिका विमाननिके गमनका कारण नाहीं । तातें गमन नाहीं । ताकू कहिये, यह कहना अयुक्त है। जाते तिनके गमनविर्षे लीन ऐसैं आभियोग्यजातिके देव तिनका किया गतिपरिणाम है । इन देवनिके ऐसाही कर्मका विचित्र उदय है, जो गतिप्रधानरूप कर्मका उदय दे है । बहुरि मेरूते ग्यारहवें इकईस योजन छोड ऊपरै गमन करै हैं । सो प्रदक्षिणारूप गमन करें हैं । इन ज्योतिषीनिका अन्यमति कहै है, जो, भूगोल अल्पसा क्षेत्र है । ताके ऊपरि नीचें होय गमन है। तथा कोई ऐसे कहै है, जो ए ज्योतिषी तौ स्थिर हैं । अरु भूगोल भ्रमे है । ताते लोककू उदय अस्त दीखै है । बहुरि कहैं हैं, जो, हमारे कहनेते ग्रहण आदि मिले है । सो यह सर्व कहना प्रमाणबाधित है। जैनशास्त्रमें इनका गमनादिकका प्ररूपण निर्बाध है। उदयअस्तका विधान सर्वते मिले है । याकी विधिनिषेधकी चर्चा श्लोकवार्तिकमैं है। तथा गमनादिकका निर्णय त्रैलोक्यसार आदि ग्रंथनिमें है, तहांतें जानना ॥
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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