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टीका
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॥ व्यंतराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥ ११ ॥ __ याका अर्थ- विविध देशान्तरनिवि जिनिके वास ते व्यंतर हैं, ऐसी इनकी सार्थिक सामन्यसंज्ञा है । बहुरि का तिनके भेदनिकी विशेपसंज्ञा किंनर किंपुरुप महोरग गंधर्व यक्ष राक्षस भूत पिशाच ऐसी है । यहु विशेपसज्ञा नाम
वचसिद्धि कर्मके विशेपके उदयतें भई है । बहुरि इनिका आवास कहां है सो कहिये है। इस रत्नप्रभापृथिवीके पहले खरभाग- निका
वि अर जंबूद्वीपते असंख्यात द्वीपसमुद्र परें जाय सातप्रकारके व्यंतरनिके आवास हैं । वहुरि राक्षसजातिके निकायके पान दूसरे पंकबहुल भागवि हैं। यहां अन्यवादी केई कहै हैं । किंनर किंपुरुप मनुष्यनकं खाय हैं। तथा पिशाच मांसका आहार करें हैं । राक्षस मांस आहारी हैं । सो यह कहना अयुक्त है । मिथ्याज्ञानतें तिनका अवर्णवाद करें हैं । जातें ए देव पवित्र वैक्रियकदेहके धारक हैं । सो अपवित्र मनुष्यनिके शरीरळू कैसे इच्छै ? तथा मांस कैसें भर्ती
इहां कहैं, जो, लोकवि व्यंतर आवै तब कहें हैं मांस दारू ल्यावो, सो यह कहना ऐसा है, प्रथम तो लोकमें अज्ञानी जीव वात आदि रोगवि व्यंतरकी कल्पना करें हैं, वातविकारतें यथा तथा वचन कहैं अवष्टा करै ताकू व्यंतर ठहराय लें । बहुरि कदाचित् कोई व्यंतर भी चेष्टा आय करै दारू आदि अशुचिका नाम भी लेय तौ तिनकी क्रीडामात्र चेष्टा है । ते मानसीक आहारी हैं। तातै तिनके कुछ भक्षण नाहीं । तिनकै मांस दारू आदि अपवित्रका भक्षण कहना तिनका अवर्णवाद है । यातें मिथ्यात्वका आश्रवका अनुभाग तीत्र आवै है । वहुरि तिनके आवास तो खरभागविर्षे कहै हैं । बहुरि पृथिवीऊपरि भी तिनके द्वीप समुद्र पर्वत देश ग्राम नगर गृहनिके आंगण गली जलके निवास उद्यान देवमंदिर आदिविर्षे असंख्यात हैं ॥ आगें तीसरा निकायकी सामान्य विशेप संज्ञाके नेम कहनेके अर्थि सूत्र कहें हैं ।
॥ ज्योतिप्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२ ॥ याका अर्थ- इन पांचूहीकी ज्योतिप्क ऐसी सामान्यसंज्ञा ज्योतिःस्वभावतें है, सो सार्थिक है । वहुरि सूर्य चंद्रमा । ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक तारका ऐसी पांच विशेपसंज्ञा है । सो यहु नामकर्मके उदयके विशेपते भई है । बहुरि सूर्याचंद्रमसौ | ऐसी इन दोयकै न्यारी विभक्ति करी सो इनका प्रधानपणां जनावनेके अर्थि है । इनके प्रधानपणां इनके प्रभाव आदिकरि किया है । बहुरि इनके आवास कहां हैं, सो कहिये है। इस मध्यलोककी समानभूमिके भागते सातसे नवै
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