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टीका म.४
। सुननामात्रहीते परमप्रीतिकू पावै है । बहुरि आनत प्राणत आरण अच्युत स्वर्गके देव अपनी देवांगनाका मनकेवि ।।। संकल्पमात्रहीतें परमसुखवं पावै हैं ॥
आगें पूछे हैं, आगिले अहमिन्द्र देवनिकै सुख कौनप्रकार है ? ऐसे पूछै ताके निश्चयके आर्थि सूत्र कहें हैंसर्वार्थ॥ परेऽप्रवीचाराः ॥९॥
वच. सिद्धि
याका अर्थ- यहां परशब्दका ग्रहण अवशेष रहे जे अहमिन्द्र तिनके ग्रहणके आर्थि है । अप्रवीचारशब्द परमसुख पान जनावनेके अर्थि है। प्रवीचार तौ मैथुनकी वेदनाका इलाज है। तिसके अभावते तिन अहमिन्द्रनिकै सहजही परमसुर आर्गे, आदिनिकायके देव दशप्रकारके भेदरूप कहे तिनकी सामान्यविशेष संज्ञाके नियमके अर्थ सूत्र कहैं हैं
॥ भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ॥ १० ॥ याका अर्थ- भवननिविर्षे वसे ते भवनवासी कहिये, यह तौ तिनकी सामान्यसंज्ञा है । बहुरि असुरकुमार नागकुमार विद्युत्कुमार सुपर्णकुमार अग्निकुमार वातकुमार स्तनितकुमार उदधिकुमार द्वीपकुमार दिक्कुमार ए दशजातिनिकी दश विशेषसंज्ञा हैं । सो नामकर्मके उदयके विशेषकरि इनके नामकी प्रवृत्ति है । बहुरि अवस्थित एकरूप अवस्था तथा स्वभाव सर्वही देवनिकै समान है । तथापि ये भवनवासी देव वेष आभूषण आयुध यान वाहन क्रीडन आदिकरि कुमारकी ज्यौं सोहे हैं प्रवते हैं, तातें इनकू कुमार कहिये हैं । तातें दशही जातिकै कुमार शब्द जोडना। यहां पूछे हैं, तिनके भवन कहां हैं ? सो कहिये हैं । रत्नप्रभापृथिवीके पंकभागवि तौ असुरकुमारनिके भवन हैं। बहुरि पहला खरभागविर्षे ऊपर नीचे हजार हजार योजन छोडकरि नवजातिके भवनवासीनिके आवास हैं । इहां कोई अन्यवादी कहै, जो, ये देव उत्तमदेवनितें शस्त्रादिकरि युद्ध करै हैं, तातें इनका नाम असुर है । ताकू कहिये, जो, ऐसा कहना तौ तिनका अवर्णवाद करना है। ते उत्तमदेव जे सौधर्मादिकके कल्पवासी हैं, ते महाप्रभावसहित हैं, तिनउपरि हीन देवनिका बल चले नाहीं । मनकरि भी तिनितें प्रतिकूल न होय, तथा कल्पवासी उत्तम परिणामनितें उपजै सो तिनकैं वैरका कारण भी नाहीं । भगवानकी पूजा तथा स्वनिके भोगनिहीविर्षे तिनकू आनंद वतॆ है। तिनके असुरनसहित युद्ध कहना मिथ्यात्वके निमित्त अवर्णवाद है ॥
आगें द्वितीय निकायकी सामान्यविशेषसंज्ञाका नियमके अर्थि सूत्र कहें हैं