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वच- - निका पान १८२
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॥ आदितस्रिषु पीतान्तलेश्याः ॥२॥ याका अर्थ- आदितै ले तीनि निकाय जे भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क तिनके पीतान्त कहिये कृष्ण नील कापोत | 8 पीत ऐसैं चारि लेश्या हैं । यहां आदित ऐसा कहते तो अन्तमध्यके मति जानूं । बहुरि दोय तथा एकके निपेधके सर्वार्थसिदि
अर्थ त्रिशब्द है । बहुरि लेश्या छह हैं तिनमैसू च्यारिका ग्रहण है । याते पीतान्त ऐसा वचन है । पीत है अन्त
जिनके ऐसा कहते चारि लेश्याका ग्रहण भया । तब ऐसा अर्थ भया, जो, भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्क इनि तीनि 1 निकायनिके जे असुरदेव तिनके कृष्ण नील कापोत पीत ए च्यारि लेश्या हैं ॥ आगै तिन निकायनिके अन्तरभेदके प्रतिपादनके अर्थ सूत्र कहै हैं
॥ दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥ ३॥ याका अर्थ- देवनिके निकायनिके दश आदि संख्याशब्दनिकरि यथासंख्य संबंध करना । ऐसें करते भवनवासीनिके दश भेद हैं । व्यंतरनिके आठ भेद हैं । ज्योतिषीनिके पांच भेद हैं। वैमानिकनिकें बारह भेद हैं । तहां बारह भेद कल्पवासीनिकेही हैं। अगले ग्रैवेयकादिके भेद नांही हैं । इहां पूछे हैं, जो, इनकू कल्प ऐसी संज्ञा कैसे है ? ताका समाधान जो, इनमें इन्द्र आदि दशप्रकार कल्पिये हैं, तातें कल्पसंज्ञा है । फेरि पूछे है, जो, यह कल्पना तौ भवनवासीआदिविर्षे भी है । ताका उत्तर जो, रूढिके वशते वैमानिकनिविही कल्पशब्द वतॆ है । तात जे कल्पनिवि उपजै ते कल्पोपपन्न कहिये । आगें इनका विशेप जाननेके अथि सूत्र कहैं हैं॥ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्य
किल्विषिकाश्चैकशः ॥ ४ ॥ याका अर्थ- अन्यदेवनितें असाधारण जे अणिमादिकऋद्धिसहित गुण तिनकार इन्दन्ति कहिये परम ऐश्वर्यकरि वत ते इन्द्र है । बहुरि आज्ञा ऐश्वर्यकरि रहित स्थान आयु वीर्य परिवार भोग उपभोग आदिकरि इन्द्रसमान होय ते सामानिक है । ते इन्द्रके पिता गुरु उपाध्यायकी ज्यों बडे होय तैसें होय है । बहुरि मंत्री पुरोहितकी जगह होय ते