________________
परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री १०८ शांतिसागर महाराजके आदेशसे श्री दिगंबर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्थाकी तरफसे ज्ञानदानके लिये छपी हुई |
श्रीवीतरागाय नमः
सर्वार्थ-५
रावच
निका
सिदि, वीर संवत् २४८१ ] .
॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ [ ग्रंथ प्रकाशन समिति, फलटण अथ तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धिटीका वचनिका पंडित जयचंदजी कृता
टीका
का पान
M२८१
दोहा-वंदन करि जि नराजकू, आगमश्रवण सु पाय ॥
सुरवर्णन घरनूं सुनूं, ज्यौँ सरदा दिढ थाय ॥१॥
आगें टीकाकार सूचना करै हैं, जो, “ भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां ” इत्यादि सूत्रनिविर्षे बार बार देव शब्द कह्या तहां ऐसा न जानिये जो देव कौन है, केई प्रकारके हैं, तिनिके निर्णयके आर्थि आचार्य सूत्र कहै हैं
॥ देवाश्चतुर्णिकायाः ॥१॥ याका अर्थ-देव हैं ते च्यारि हैं निकाय कहिये समूह जिनके ऐसे हैं । देवगति नामकर्मका उदय अंतरंगकारण होते बाह्यनिमित्तके विशेषनिकरि द्वीपसमुद्र आदिविर्षे जैसे इच्छा होय तैसेंही क्रीडा करै ते देव कहिये । इहां कोई कहै है कि, सूत्रविर्षे विभक्तिका बहुवचन है सो एकवचनही चाहिये, समानजातिके कहनेते बहुकी प्रतिपत्ति होय है। ताका समाधान- जो, इन च्यारिही निकायमैं अंतर्भेद इंद्र सामानिक आदि तथा आयु आदिका भेदतें बहुत हैं, तिनके जाननेके अर्थ बहुवचन है। तहां देवगतिनामकर्मके उदयकी सामर्थ्यते भेदरूप समूह होई, तार्क निकाय कहिये हैं । ऐसें च्यारि निकाय इन देवनिके हैं । ते कौन ? भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्क वैमानिक ऐसें ॥
आगै तिनके लेश्याका नियमके अर्थि सूत्र कहै हैं
.
..