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सर्वार्थ
सिद्धि टी का
म. ३
तौ शरीरवाले ईश्वरने किया । बहुरि ईश्वरकै शरीर कौन किया ? जो अन्यशरीरके संबंध शरीर भया कहै, तौ अनवस्थादूषण है । बहुरि जो अदृष्टगुण कहिये पूर्वकर्मके संबंधर्ते भया कहे, तो ईश्वरकै कर्मका किया पराधीनपणा ठहरै । बहुरि कहै जो पृथिवी आदिरूप ईश्वरकी मूर्ति है, तिनकी उत्पत्तिविषै ईश्वरही कारण है । ताकूं कहिये, जो, | ऐसें तौ सर्वही आत्मा अपनी अपनी मूर्तिर्ते अपने अपने शरीरकी उत्पत्तिके कारण ठहरै तौ कहा दोष ? तहां ईश्वर पृथिवी आदिरूप मूर्ति बनाई तहां अन्यमूर्तिके संबंधतें बनाई कहिये, तहां भी अनवस्थादूषण आवै है । बहुरि अनादि मूर्तिका संबंध कहै तौ लोककी रचनाही अनादि क्यों न कहिये ? बुद्धिवानका कर्तव्य कहनेकी कल्पना क्यों करिये ?
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बहुरि केई निर्देह ईश्वरवादी हैं, ते कहै है । जो ईश्वर जगत्की रचनाकूं निमित्त कारण है सो भी कल्पनाही है । जातें जे मुक्त आत्माकं देहरहित माने हैं, सो जगत्का निमित्त कारण नाहीं । तैसैं ईश्वर भी देहरहित निमित्तकारण । अरु ईश्वरकै नित्यज्ञान है, तातैं कर्तापणा बणै है । ताकूं कहिये, जो नित्यनाहीं । बहुरि क मुक्तात्मा तौ ज्ञानरहित ज्ञानके कर्तापणा बणै नाही । अनेक नित्यानित्य व्यवस्थारूप जगतकूं करेगा ताका ज्ञान भी नित्यानित्य रूपही ठहरैगा । बहुरि कोई क्षेत्रमें कोई कालमें कार्य उपजै है कोईमें नाहीं उपजै है । अरू ईश्वर सर्वक्षेत्रकालमें व्यापकही है, सो कार्य नाहीं उपजै, तहां रोकनेवाला कौन है ? बहुरि कहै ईश्वरकी इच्छा होय जैसें होय है । तहां पूछिये ईश्वरके इच्छा काहे भई १ तहां कहै प्राणीनिके अनुसारी इच्छा होय है । तौ ऐसें होतें सर्व प्राणीनिकै कर्मनिके निमित्ततें कार्य होना क्यौं न मानिये ? ईश्वरकी कल्पना कौन अर्थि करिये १ इत्यादियुक्तिर्ते जगत्का ईश्वरकर्ता सिद्ध नाहीं होय है । याकी चर्चा श्लोकवार्तिकर्ते विशेषकरि जाननी । तातैं स्याद्वादकरि अनादिनिधन नित्यानित्यात्मक स्वयंसिद्ध अकृत्रिम जगत् षड्द्रव्यात्मक लोक है । सो सर्वज्ञके आगमकरि प्रमाणसिद्ध जाननां । अन्यवादी अनेक कल्पना करै है, सो प्रमाणभूत नाहीं ऐसें निश्चय है ॥ ऐसें तृतीयाध्यायका कथन है ॥
॥ छप्पय ॥
सातनरककी भूमि भूमिमें बिल बहुतेरे । पापजीव परिणाम दुष्टलेश्या दूर केरे ॥ आयुका दुःख भूरि भजै दुःकृतफल पूरे । कहे सकल भगवान् पापहरनेकूं दूरे ॥
व च
निका
पान
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