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तहां पहली दूसरी तीसरी चौथी पृथिवीविषै तौ बिला उष्णही है । बहुरि पंचमीविषै ऊपरि तो उष्णवेदनारूप दोय लाखे बिला है । नीचे एक लाख बिला शीतवेदनारूप हैं । बहुरि छठी सातमीविर्वै शीतवेदना ही है । बहुरि ते नारकी विक्रिया करै, ते आप तौ जाणें मैं शुभही करूंगा परंतु अशुभविक्रियारूपही परिणमै । बहुरि आप तो जाणै मै सुखका कारण उपजाऊं हूं । परंतु तहां दुःखके कारणही उपजै । ऐसें ए भाव नीचे नीचे अशुभर्ते अशुभ अधिके अधिके जानने ॥ आर्गे पूछे है, इनि नारकी जीवनिकै दुःख है, सो शीतउष्णजनितही है, कि अन्य अन्य प्रकार भी है ! ऐसें पूछै सूत्र कहें हैं
॥ परस्परोदीरितदुःखाः ॥ ४॥
याका अर्थ -- नारकजीव परस्पर आपसमैं उपजाया है दुःख ज्यों ऐसे हैं ॥ इहां पूछे है, कि परस्पर उपजाया दुःख कैसे है ? तहां कहिये है, नारकीनिकै भवप्रत्ययनामा अवधि हो हैं ताकूं मिश्रया व के उदयर्ते विभंग भी कहिये । इस दुःखके कारणनिकूं दूरिहीतें जाणें | बहुरि निकटर्ते परस्पर देखने कोप प्रज्वलै है । बहुरि पूर्वभवका जातिस्मरण होय, तातैं तीव्रवैर यादि आवै है । जैसें श्वानके अरु स्यालकै परस्पर वैरका संबंध है, तैसें अपने परके परस्पर बातविर्षे प्रवर्ते हैं । बहुरि आपही विक्रियाकरि तरवारि कुहाडी करसी भिंड माल शक्ति तोमर सेल लोहके घन इत्यादिक शस्त्रानेकरि बहुरि अपने हाथ पग दांतनिकरि छेदनां भेदनां छोलनां काटनां इत्यादिक क्रियाकरि परस्पर अतितीव्र दुःख उपजावे हैं ॥
आगें, कहा एतावत् ही दुःखकी उत्पत्तीके कारण तथा प्रकार हैं कि और भी कछु है ! ऐसें पूछै सूत्र कहै हैं-
॥ सक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्थ्याः ॥ ५ ॥
याका अर्थ- क्लेशपरिणामसहित जे असुरकुमारके देव ते उपजावै है दुःख जिनिकूं ऐसे नारकी जीव तीसरे नरकपर्यंत हैं ॥ देवगति नामकर्मका भेद जो असुरत्वसंवर्तन ताकै उदयतें परकूं दुःख देवै ते असुर कहिये । पूर्वजन्मविषै इनि देवनिनैं ऐसाही अतितीव्र संक्लेश परिणामकरि पापकर्म उपाय है । ताके उदयतें निरंतर संक्लेशसहित असुर हो हैं । तिनिमेँ केई अंब अंबरीप आदि जातिके असुर है, ते नारकीनिकूं दुःख उपजावै हैं । सर्वही असुर दुःख नांही उपजावै हैं । बहुरि इनि असुरनिका गमनकी मर्यादा दिखावनेकूं “ प्राक् चतुर्थ्याः " ऐसा वचन हैं। ऊपरकी
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