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सर्वार्थ
निका
टीका
विपैं एक प्रस्तार है । तामैं अप्रतिष्ठान नामा एक इंद्रक है । तहां इंद्रकनिकै चायों दिशामें च्यारि श्रेणी हैं। चार्यों दिशासंबंधी श्रेणीबंध बिला तौ गुणचास गुणचास हैं । बहुरि विदिशासंबंधी अठतालीस अठतालीस हैं। पीछे सातई पृथिवीका प्रस्तारताई एक एक घटता गया सो श्रेणीबंध तौ एक एक रह गया । विदिशामें रहाही नाही । ऐसें इनिकी संख्या पूर्व कही सो न्यारी न्यारी पृथ्वीसंबंधी जानि लेनी । तहां सप्तम पृथिवीके श्रेणीबंध च्यारि रहे । तिनिका
वचनाम पूर्वदिशाविष काल, दक्षिणदिशाविर्षे महाकाल, पश्चिमदिशाविर्षे रौरव, उत्तरदिशाविर्षे महारौरव ऐसे हैं। बहुरि सर्व सिद्धि
बिला चौरासी लाख हैं । तहां इंद्रक तौ गुणचास हैं। श्रेणीबंध नव हजार छहसै च्यारि हैं । बहुरि प्रकीर्णक तियासी । भ.३
लाख निवै हजार तीनसौ सैंतालीस हैं । तिनिमें सर्वही भूमीमैं पांचवै भाग बिला तो संख्यात हजार संख्यात हजार योजननिकै विस्तार हैं। बहुरि अवशेष च्यारि भाग बिला असंख्यात लाख असंख्यात लाख योजनकै विस्तार हैं...। इन सर्वही बिलानिके नाम अशुभही अशुभ जाननें ॥ ____ आगें, तिनि भूमिनिविर्षे नारक जीवनिकै अन्यविशेष कहा है ? ऐसे पूछ सूत्र कहै हैं
॥ नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥ ३॥ याका अर्थ- इनि भूमिनिवि4 नारकजीव हैं ते सदा अशुभतर हैं लेश्या परिणाम देह वेदना विक्रिया जिनिकै ऐसे हैं ॥ लेश्यादिकका अर्थ तो पहलै कह्या, सोही जाननां । अशुभतर ऐसा विशेषण तिनिका अधिकपणांकै अर्थि है ।
सो तिर्यचनिकै जैसै अशुभलेश्यादिक हैं तिनितें अधिके नारकीनिकै जानने । अथवा उपरिके नारकीनिकै जैसै हैं, तिनिते । अधिके अधिके नीचे नीचे जानने । बहुरि नित्य शब्द है सो दुःखमैं दुःख चल्याही जाय ऐसै अर्थमें है । तहां पहली १ दूसरी पृथिवीके जीवनिकै तौ कापोतलेश्या है । बहुरि तीसरी पृथिवीवालेनिकै उपरिकै तौ कापोत है नीचलेकै नील
लेश्या है। चतुर्थीवालेकै नीलही है। पंचमीवालेकै उपरिकै तौ नील है । नीचलेकै कृष्ण है। छठीवालेकै कृष्ण है।। सातमीवालेकै परमकृष्ण है ऐसे द्रव्यलेश्या तौ आयुपर्यंत एकसी है । बहुरि भावलेश्या अंतर्मुहूर्तमें पलटवो करै है। बहुरि परिणाम स्पर्श रस गंध वर्ण शब्द हैं । ते क्षेत्रका विशेपके निमित्तके वशते अतिदुःखके कारण अशुभतर है। बहुरि जिनिका देह अशुभनामकर्मके उदयतें अत्यंत अशुभतर है, बहुरि आकृति हुंडकसंस्थानरूप है तिनिकी उंचाई प्रथमपृथिवीविपैं तो सात धनुष तीन हात छह अंगुलप्रमाण है । बहुरि नीचे नीचै दूणा दूणा जाननां । बहुरि नारकीजीवनिकै अभ्यंतर तो असातावेदनीयका उदय होतें बहुरि बाह्य अनादिका शीतोष्णरूप पृथिवीका स्वभावकरि उपजी तीव्रवेदना है।