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________________ सायश वशते घटिजाय ताकौं अपवर्त्य कहिये । इनिका आयु बाथकारणते घटै नांही ऐसा नियम है । अन्यका नियम नाही। इहां चरमदेहका उत्तम विशेषण है सो उत्कृष्टपणाके अर्थ है, अन्य अर्थ नाही है। केई चरमदेहा ऐसाही पाठ पढे हैं। इहां विशेष जो, चरमशब्दका उत्तमविशेषण है सो उत्कृष्टवाची है । तहां तत्त्वार्थवार्तिकमैं ऐसें कह्या है, जो चक्र| वादिका ग्रहण है । इहां कोई कहै, अंतका चक्रवर्ती ब्रम्हदत्त तथा अंतका वासुदेव श्रीकृष्ण इत्यादिकका आयु अप-161... वर्तन हुवा सो इहां अव्याप्ति भई । ताका समाधान, जो, चरमशब्दका उत्तम विशेषण है । तातें चरमशरीरी तद्भवमोक्ष- निका | गामी होय तिनिका शरीरका उत्तम विशेषण है । तातै दोष नाही । इ तर्क, जो, काल आये विनां तौ मरण होय पान नांही । ताका समाधान, जैसे आमका फल पालमैं दीये शीघ्र पकै है, तैसें कारणके वशते आयु बांध्या था ताकी उदीरणा १४६ होय पहलैही मरण होय जाय है, ऐसे, जाननां । बहुरि जैसें चतुर वैद्य वायु आदि रोगका काल आये विनाहीवमन विरेचनादिके प्रयोगकरि श्लेष्मादिकका निराकरण करै है, तैसें इहां भी जाननां । ऐसें न होय तौ वैद्यकशास्त्र मिथ्या ठहरै ॥ इहां फेरि कहै, जो, रोगते दुःख होय ताका दूरि करनेके अर्थि वैद्यकका प्रयोग है । ताकू कहिये दुःख होय ताका भी इलाज करै है बहुरि दुःख नाही होय तहां अकालमरण न होने निमित्त भी प्रयोग करै है ॥ ___इहां कोई कहै, जो आयुका उदीरणा रूप क्षय है निमित्त जाकू ऐसा अकालमरणका इलाज कैसे होय ! ताकू कहिये असातावेदनियका उदयकार आया दुःखका इलाज कैसे होय ? जैसे असातावेदनीयका उदय तौ अंतरंग कारण वहुरि वाद्य वातादि विकार होते ताका प्रतिपक्षी औपधादिकका प्रयोग कीजिये तब दुःख मिटि जाय है । तैसेंही आयुकर्मका उदय अंतरंग कारण होते वाह्य जीवितव्यके कारण पथ्य आहारादिकका विच्छेद होते आयुकी उदीरणा होय । | मरण होय जाय अरु पथ्य आहारादिककी प्राप्ति होते उदीरणा न होय जीवितव्य रहै है तब अकालमरण न होय है ऐसें जाननां । बहुरि कोई कहै आयु होते भी मरण होय तो तहां कर्मका फल दिया विनां नाश ठहरै है। ताकू कहिये, असातावेदनियका उदय होते भी इलाजते मिटै तब कर्म फलरहित कैसै न भया ? । फेरि कहै, कडी औपधिके ग्रहणकी | पीडामात्र दुःख असातावेदनीय फल दे है ताते विनां फल नाही । ताकू कहिये, ऐसेंही आयुकर्म भी जीवनमात्र तो फल दियाही अफल कैसै ठहय ? विशिष्ट फलका देनां दोऊही कर्मनिकै समान भया तातें यह सिद्धि भई, जो, कोईकै अपमृत्यु भी होय है, जेती पूर्वभववि आयुकर्मकी स्थिति वांधी थी ताकी बाह्य विप शस्त्रादिककै निमित्ततें स्थिति घटिजाय उदीरणा होय तब मरण होय जाय । इहां ऐसा भी दृष्टांत है, जैसे जल आदिकते ओला वस्त्र चौडाकार तापमें सुकावै तब शीघ्र सूकै तैसें भी जाननां ॥ ऐसें दूसरा अध्याय समाप्त किया ॥
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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