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वच
सिवि
टीका
आगे, वैक्रियिक पीछे कह्या जो आहारक शरीर, ताका स्वरूपका निर्धार करनेकै आर्थि तथा स्वामी कहनेकै अर्थि सूत्र कहै है
॥शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसँयतस्यैव ॥ ४९ ॥ याका अर्थ- शुभ है विशुद्ध है व्याघातरहित है ऐसा आहारक शरीर प्रमत्तसंयमी मुनिकैही होय है ॥ इहां शुभ : पर्वार्थऐसा नाम तो आहारककाययोग शुभकर्महीका कारण है तातें है, | याकै होते शुभ प्रकृतिही बंध होय है । इहां कारण
निका BI वि कार्यका उपचार है। जैसे अन्नकू प्राण कहिये है । बहुरि विशुद्ध ऐसा नाम है सो पुण्यकर्म उदयहीते यह पान भ.
होय है, तातै विशुद्ध कहिये निर्मल बहुरि पापकर्मकार मिल्या नाही ऐसा निर्दोषकर्म ताका अर्थ है, तातें विशुद्ध ऐसा ||१४३ कहिये है । इहां कारणविर्षे कार्यका उपचार है । जैसें कपासके तारनिकू कपासही कहिये । बहुरि दोऊ रीतिकार इसके व्याघात कहिये झकनां सो नाही तातै अव्याधाति कहिये । इस आहारकशरीरकरि अन्य रुकै नांही तथा अन्यकरि यह भी रुकै नांही । बहुरि च शब्द है सो समुच्चयकै अर्थि है । कदाकाल तो लब्धिविशेपका सद्भाव जनावनेकै अर्थि है। कदाकाल सूक्ष्म पदार्थका निर्णय करावने होय है। तहां संयमके रक्षाकै अर्थि है ऐसा प्रयोजन पहले कह्या ।
ताका समुच्चय च शब्द करै है। बहुरि जिस काल आहारकशरीर प्रवर्तनका मुनिके अवसर है तिस काल मुनि प्रमादसहित । होय है । तातै प्रमत्तसंयतहीकै यह होय है ऐसा कह्या है । इहां क्रियारूप प्रवर्ते ताकू प्रमाद कहै है । ऐसा मति।। की जानूं , जो, अविरतकी ज्यों प्रमाद होय है। एवकारतें यह नियम किया है, जो, प्रमत्तसंयमी सुनिकै होय है, अन्यकै 8 नांही होय है। ऐसे मति जानूं, जो प्रमत्तसंयमी मुनिकै आहारकही होय है औदारिक नाही होय है । औदारिक तौर | हेही ॥ ऐसें चौदह सूत्रनिकरि पांच शरीरनिका निरूपण किया । | इहां विशेष- केई अन्यवादी तौ कार्मण शरीर नाही माने हैं । कहै हैं, कर्म आत्माहीका अदृष्ट नामा गुण है, ताका शुभाशुभ फल है । सो यह माननां अयुक्त है । द्रव्यादृष्ट तौ पौद्गलिक कार्मण है। ताकै निमित्ततें भावादृष्ट जीवका गुण है । बहुरि केई अन्यमती कहै हैं भावकर्मही क्रोधादिक आत्माका भाव है, द्रव्यकर्म नाही, सो भी अयुक्त है। जीवकू बंदीखाने ज्यों पराधीन करनेवाला पुद्गलपर्यायरूप द्रव्यकर्म भी है । वहुरि केई अन्यमती स्वप्नमात्र शरीरकं कहे हैं। सो भी अयुक्त है । जो स्वप्नमात्रही होय तो जैसे स्वप्नवि केई वस्तु देखै, जागै तब कछु दीखै नाही, तैसे यह शरीर भी न दीख्या चाहिये । सो ऐसे है नांही । बहुरि कोई अन्यमती आत्माकै ज्ञानमात्र शरीर मान है, सो भी अयुक्त है । पुद्गलमय शरीर विना शरीरकै अर आत्माकै भेद कैसे जान्या जाय ? । ज्ञान तौ आत्माका धर्म है,