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टीका का २
॥ गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम् ॥ ४५ ॥ याका अर्थ- आदिका शरीर औदारिक सो गर्भत तथा संमूर्छन” उपजै है ॥ सूत्रपाठकी अपेक्षा आदिविर्षे होय सो आद्य कहिये, सो औदारिक लेना । जो गर्भतें उपजै बहुरि संमुळुनतें उपजै सो सर्व औदारिक जाननां॥
वचआगें, इसकै लगता कह्या जो वैक्रियिक, सो कैसै जन्मवि उपजै है ? ऐसे पूछै सूत्र कहै हैं--
निका
पान ॥ औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥ ४६ ॥
१४२ याका अर्थ- बैंक्रियिक शरीर है सो उपपादजन्मवि उपजै है । उपपादविर्षे होय सो औपपादिक कहिये । सो सर्व वैक्रियिक जाननां ॥
आगें पूछे है, जो, वैक्रियिक औपपादिक है तौ उपपादवि न उपजै ताकै क्रियिकपणाका अभाव आया । ऐसे कहतें उत्तरका सूत्र कहै हैं--
॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥ याका अर्थ- लब्धिते भया भी वैक्रियिक कहिये है ॥ इहां च शब्दकरि वैक्रियिकसंबंध करनां । तपके विशेपते ऋद्धिकी प्राप्ति होय, ताकू लन्धि कहिये । ऐसी लब्धि जाकू कारण होय सो लब्धिप्रत्यय कहिये । सो वैक्रियिक लब्धिप्रत्यय भी होय है ऐसा जाननां ॥ आगै पूछ है, कि लब्धिप्रत्यय वैक्रियिकही है कि और भी है ? ऐसा पूछ सूत्र कहै हैं
॥ तैजसमपि ॥ ४८॥ याका अर्थ- तैजसशरीर भी लब्धिप्रत्यय होय है ॥ इहां अपि शब्दकरि लब्धिप्रत्ययका संबंध करना सो तैजस || भी लब्धिप्रत्यय होय है ऐसा जाननां । इहां विशेप जो, तैजसके दोय भेद कहे एक निःसरणस्वरूप दूसरा अनिःसरणस्वरूप । तहां निःसरणस्वरूप दोय प्रकार, शुभतैजस अशुभतैजस । सो यहु तो लब्धिप्रत्यय कहिये । वहरि अनिःसरणस्वरूप है सो सर्वसंसारी जीवनिकै पाईये । सो लब्धिप्रत्ययतें भिन्न जाननां ॥