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। चतुरिंद्रियके चक्षुइंद्रियकरि अधिक आठ प्राण हैं । बहुरि पंचेंद्रियके तिर्यंचनिवि असंज्ञीकै तौ कर्ण इंद्रियकरि अधिक 4 नव हैं । बहुरि संज्ञीके मनबलकरि अधिक दश प्राण हैं। ऐसे पांच सूत्रनिकरि सर्व संसारी जीव कहै । इहां कोई
पूछे, विग्रहगति अंतरालमैं इंद्रिय नाही तिनिका ग्रहण कैसै भया ? तहां कहिये, जो, बसस्थावर नामकर्मका उदय विग्रह18| गतिमैं भी है । तिस विना होय तो मुक्तजीव ठहरै, तात ते भी आय गये ॥ सिद्धि आगें, द्वीद्रिय आदि ऐसा कह्या तहां आदिशद्वमें कहांताई गिणनां ? ताकी संख्याकी मर्यादा जनावने नियमका टीका का
सूत्र कहै हैं
सर्वाय-श
वचनिका पान १२६
अ२
॥ पंचेंद्रियाणि ॥ १५॥ याका अर्थ- इंद्रिय पांच है ॥ इंद्रियगन्दका अर्थ तो पहलै कह्याही था, जो इंद्र कहिये आत्मा संसारी जीव ताका लिंग कहिये जनावनेका चिन्ह । तथा इंद्र जो नामकर्म ताकरि रचे जे आकार ते इंद्रिय हैं । बहरि पंच | नियम किया, जो इंद्रिय पांचही है, हीनाधिक नाही। इहां अन्यमती कहै, जो, कर्मइंद्रिय कहिये वचन, हाथ, पाद, पायु, उपस्थ | इनिका भी ग्रहण करना चाहिये । ताकू कहिये, इहां न चाहिये । जातें इहां आत्माके उपयोगका प्रकरण है । तातें उपयोगके । कारणही ग्रहण करना चाहिये । क्रियाके साधन नाही कहे । जो क्रियासाधन भी कहिये तो अनवस्था आवै । अंगोपांग नामा नामकर्मते रचे जे क्रियाके साधन ते सर्वही ग्रहण करने चाहिये । वचनादिक पांचही ग्रहण कैसे होय ? ॥
आगें, तिनि इंद्रियनिके भेद दिखावने सूत्र कहै हैं--
॥द्विविधानि ॥ १६ ॥ याका अर्थ- जे इंद्रिय कहे ते द्रव्येद्रिय भावेंद्रियकार दोय प्रकार हैं ॥ इहां विधशब्द है सो प्रकारवाची है । ताका समास ऐसा होय है, दोय प्रकार जाके ताकू द्विविध कहिये दोय प्रकार हैं। ऐसा अर्थ भया । ते कौन ? द्रव्येद्रिय भावेंद्रिय ऐसें ॥
तहां द्रव्येद्रियके स्वरूपका निर्णयके अर्थि सूत्र कहै है