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________________ सर्वार्थ निका सिद्धि टीका अ २ ११७ ज्ञानदर्शन आवरणके क्षयोपशम तथा क्षयके अनुसार उज्वलता होय ऐसा भावयोग ताकू आत्मभूत कह्या । तहां इनिका यथासंभव सन्निधान होते आत्माका चैतन्य स्वभाव है । सो अनुविधान कहिये अन्वय परिणामरूप प्रवतै वा परिणाम... उपयोग कहिये । इहां कोई कहै- चैतन्यके परिणाम सुख दुःख मोहरूप भी हैं ते परिणाम भी ग्रहण करना चाहिये। अगले सूत्रमें उपयोगके भेद ज्ञानदर्शनही कहे, सो पूर्वापरविरोध आवै है । ताका समाधान- इहां चैतन्यसामान्यके ग्रहणते वचसर्वहीका ग्रहण होय है। परंतु अगिले सूत्रमैं भेद किये जे दर्शनज्ञान तेही इहां ग्रहण करने । जातें सामान्यका जो विशेष सर्वही अवस्थामैं व्यापक होय सोही लक्षणप्रकरणमै लेणा, तातै विरोध नाही। अब इहां पूछे है, जो लक्षण || पान कहा ? तहां कहिये हैं, जहां बहुत वस्तु मिली होय, तिनिमें जिस चिन्हकरि वस्तुकी जुदायगी जाणी जाय तिस चिन्हकू लक्षण कहिये । सो यहू आत्मभूत अनात्मभूत भेदकरि दोय प्रकार है । जैसें अग्निकै उष्णपणां सो तो आत्मभूत है। दंडी पुरुपकै दंड सो अनात्मभूत है । सो इहां आत्माका उपयोग लक्षण आत्मभूत जाननां ॥ इहां कोई कहै, जो, उपयोग तो असाधारणधर्म है, ताते लक्षण नाही, गुणकै अरु गुणीकै अन्यपणां है । जाते लक्ष्यलक्षणकै भेद है । ताकू कहिये, सर्वथा भेद होते अनवस्था हो है। तातें कथंचिद्भेदाभेदात्मक होते लक्ष्यलक्षणभावकी सिद्धि हो है। जाके मतमैं आत्मा एकांतकरि नित्य अभेद ज्ञानस्वरूप है, ताके मतमै ज्ञानके परिणाम जे अनेक ज्ञेयाकार होना ऐसा उपयोग नाही सिद्ध हो है तहां सर्वव्यवहारका लोप हो है। तातें चैतन्यके परिणाम... उपयोग मानै सर्वसिद्धि है । सोही उपयोग लक्षण है आत्मा लक्ष्य है । इहां कोई कहै, आत्मा लक्ष्यही नाही तब लक्षण काहेका ? विना लक्ष्य लक्षण कहना ससाके सींगवत मीडकके चोटीवत् वांझके पुत्रवत् आकाशके फूलवत् अभावरूप है। बहुरि जो आत्मा भी मानिये, तो ज्ञानदर्शन तौ अनवस्थित है । सो लक्षण बणे नाही । अनवस्थितर्फे भी लक्षण मानिये तो जब लक्षणका अभाव होय तब लक्ष्यका भी अभावही आवै है । ताकू कहिये, आत्माका अभाव कहनां युक्त नाही । जाते जो आत्माका अभाव कारणपणांके अभावतें मानिये तो आत्माके नारकादि पर्याय तौ मिथ्यादर्शनादिक कारण” होयही है । बहुरि नारकादिपर्याय हैं ते द्रव्यविना निराश्रय होय नांही । तातै इनिका आश्रय आत्मा द्रव्य हैही। तब कारणपणाका अभाव कैसे ? बहुरि सत् है सो विनाकारण भी कहिये । सत्ही भया तब कारण काहेकू चाहिये ? बहुरि मीडककै चोटिके अभावका दृष्टांत है सो मीडक आदि तथा चोटी आदिका सत्त्व मानिकरि मीडक आदिकै संबंधका अभाव मानिये है । तहां सत्त्व असत्त्व दोऊ पक्षका ग्रहण है । तातें यहु दृष्टांत भी मिलै नांही । जातें यहु जीव कर्मके वशतें अनेक जातीके संबंधळू पावै है । जब मीडक भया तब तौ चोटीका संबंध न
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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