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॥ इहा तर्क- औपशमिकादिभाव जीवकै नाही बणै हैं। जाते आत्मा अमूर्तिक है। ताते ते भाव कर्मबंधकी अपेक्षारूप
हैं । अमूर्तिककै कर्मवंध युक्त नाही । तहा उत्तर- जो, आत्मा अमूर्तिकही है ऐसा एकांत नाही है । इहां अनेकांत 2ी है । आत्मा कर्मबंधपर्यायकी अपेक्षा तिस कर्मके बंधनतें कथंचित् मूर्तिक है । शुद्धस्वरूपकी अपेक्षा कथंचित् अमूर्तिक
1 है । तहां फेरि तर्क करै है; जो, ऐसे है तो कर्मबंधका बंधनतें आत्माका एकत्वपणां ठहया, तब अभेद ठहन्या, तब सर्वार्थR भेद कैसै बणैगा ? ताकू कहिये; यहु दोप नाही आवै है। जातें बंधपर्यायकी अपेक्षा एकत्वपणांकू होते भी लक्षण
भेदत या आत्माकै अर कर्मकै नानापणा अनेकपणां है ऐसा निश्चय कीजिये । सोही इहां सिद्धातकी गाथा है ताका । अर्थ- बंधप्रति तो जीवकै अर कर्मकै एकत्वपणा है बहुरि लक्षणभेदतें नानापणा है । तातें जीवकै अमूर्तिकभाव है,
सो अनेकांत” सधै है। ऐसे जीवके पाचभाव कहनेतें सांख्यमती आदिक आत्माकू शुद्धही एकांतकरि माने हैं, Rतिनिका निराकरण भया । जाते सर्वथा शुद्धही होय, तौ संसार बंध मोक्ष तथा मोक्षका उपाय आदिकी कथनी सर्व
मिथ्या ठहरै । बहुरि पंचभावरूप आत्मा कहनेते स्याद्वादनयकरि बंधमोक्षादि सर्वही कथंचित्प्रकार सिद्ध होय है। ऐसे सात सूत्रनिकरि जीवके पाचभावनिका वर्णन किया ।
__ आगै, जो बंधप्रति एकत्व है सो लक्षणभेदतें बंध अरु आत्मा जुदे जाने जाय हैं । सो जीवका कहा लक्षण है ? । जाते जुदा जानिये सो कही ऐसे पूछ सूत्र कहै हैं--
॥ उपयोगो लक्षणम् ॥ ८॥ याका अर्थ- उपयोग है सो जीवका लक्षण है ॥ उभयनिमित्त कहिये वाह्य अभ्यंतर कारणनिके वशते उपज्या जो II चैतन्यकै अनुविधायी कहिये जुड्या हुवा चैतन्यहीका परिणाम सो उपयोग है। तिसकरि आत्माकै बंधप्रति एकपणाकू होते भी आत्मा जुदा लखिये है । जैसे सोना रूपाका एकपिंड होतें भी पीत श्वेतवर्ण आदिकरि भेद जान्या जाय है
तैसे भेद जानिये है। I इहां तत्त्वार्थवार्तिक टीकाके अनुसार कछु लिखिये है । तहां वाह्य अभ्यंतर दोय कारण कहे तहां वाह्यके भी दोय
भेद कहै है एक आत्मभूत एक अनात्मभूत । तहां आत्मभूत तो शरीरके संबंधरूप इंद्रियनकू कहे । बहुरि दीपक प्रकाशाIXI दिक अनात्मभूत कहे । बहुरि अभ्यंतर कारण के भी आत्मभूत अनात्मभूतकरि दोय भेद कहे । तहा द्रव्यमन वचन १] कायके योग पुद्गलरूप है तिनिकू अनात्मभूत कया । बहुरि आत्माके चैतन्यभावतें तन्मय जे प्रदेश तिनिमें वीर्यातराय
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