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________________ सर्वार्थसिद्धि टी का अ २ ११४ ०००००. जधन्यगुण जामें होय ऐसा एक परमाणू लेणा । ताका अनुभागकू बुद्धिकरि छेदनतें जहां ऐसा छेद होय ताका फेरि ।। दुसरा छेद न होय ऐसे अविभाग परिच्छेद सर्वजीवनितें अनंतगुणां है, ताकी एक राशि कीजिये ताका नाम वर्ग है । बहुरि समान अविभागपरिच्छेदके समूहरूप परमाणूनिके समूहका नाम वर्गणा है। तहां थोरेलूँ थोरे अविभागपरिच्छेदके परमाणूनिका नाम जघन्य वर्ग है । तिसके समान परमाणूरूप वर्गके समूहका नाम जघन्यवर्गणा है । बहुरि जघन्यवर्गत वचएक अविभाग परिच्छेद वधता तामै पाईये ऐसी परमाणूनिके समूहका नाम द्वितीय वर्गणा है । ऐसें जहांतांई एक एक निका अविभागप्रतिच्छेदनिका क्रम लिये जेती वर्गणा होय तितनी वर्गणानिके समूहका नाम जघन्यस्पद्धक है । बहुरि यातें पान उपरि जघन्यवर्गणाके वर्गनिवि जे अविभागप्रतिच्छद थे तिनितें दूणे जिस वर्गणाके वर्गविर्षे अविभागप्रतिच्छेद होय तहातै द्वितीयस्पर्द्धकका प्रारंभ होय तहां भी एक एक अविभागप्रतिच्छेद वधनेका क्रमरूप वर्गनिका समूहरूप जेती वर्गणा होय तिनिके समूहका नाम द्वितीय स्पर्द्धक है । बहुरि ऐसेही प्रथमस्पर्द्धककी प्रथमवर्गणाके वर्गनिवि जेते अविभागप्रतिच्छेद थे तिसते तिगुणे जिस वर्गणाके वर्गनिवि अविभागप्रतिच्छेद पाईये तहांतें तीसरे स्पर्द्धकका प्रारंभ होय, ऐसेंही वर्गणाके समूहका नाम स्पर्द्धक है । सो ऐसे स्पर्द्धक अभव्यराशितें अनंतगुणा अरु सिद्धराशिकै अनंतवै भाग एक उदयस्थानविपैं हो है ऐसे जाननां ॥ आगै जो इकईस भेदरूप औदयिक भाव कह्या ताके भेदनिके नाम कहनेके अर्थि सूत्र कहै हैं-- ॥ गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिध्दलेश्याश्चतुश्चतुस्त्येकैकैकैकषड्भेदाः ॥ ६॥ याका अर्थ-- गति च्यारि भेद, कपाय च्यारि भेद, लिंग कहिये वेद तीन भेद, मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, | असंयम एक, असिद्ध एक, लेश्या छह, ऐसै इकईस भेदरूप औदयिक भाव है ॥ तहां यथाक्रम ऐसी तौ पूर्वसूत्रतें अनुवृत्ति लेणी । तिसके संबंधतें गति तौ च्यारि भेद, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति । तहां अपने अपने | नामकर्मकी प्रकृतिके उदयतें होय है तातें औदायक है । बहुरि कषाय च्यारि भेद क्रोध, मान, माया, लोभ । ते भी अपनी अपनी मोहनीयप्रकृतिके उदयतें होय हैं तातें औदयिक हैं । लिंग तीन भेद स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद । ते भी अपनी अपनी प्रकृतिकै उदयतें होय हैं ताते औदयिक हैं। मिथ्यादर्शन मिथ्यात्वनाम मोहनीयकी प्रकृतिके उदयतें होय || है । याकरि परिणाम तत्त्वार्थका अश्रद्धानरूप है । बहुरि ज्ञानावरण नामा कर्मके उदयतें पदार्थनिका ज्ञान न होय सो अज्ञान । वहुरि चारित्रमोहके सर्वघातिस्पर्द्धकनिके उदयतें असंयम होय सो औदयिक असंयत है । बहुरि सामान्यकर्म
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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