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हा परम उत्कृष्ट अनंतवीर्य अव्याबाधस्वरूपकरिही तिनिकी तहां प्रवृत्ति है । जैसें केवलज्ञानरूपकरि अनंतवीर्यकी प्रवृत्ति हो । हा है, तैसें यह भी जाननां ॥
आगें, जो शायोपशमिक भाव अठरा भेदरूप कह्या ताका भेदनिका निरूपणकै अर्थि सूत्र कहै हैं ॥
॥ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥ ५॥ सिद्धि
निका टीका
याका अर्थ-- ज्ञान चारी भेद, अज्ञान तीन भेद, दर्शन तीन भेद, अंतरायका क्षयोपशमरूप लब्धि पांच भेद, 181 अ २० ऐसे पंधरा तो ये, बहुरि क्षायोपशमिकसम्यक्त्व आयोपशमिकचारित्र संयमासंयम ऐसें तीन ये सब मिलि अठारह
क्षायोपशमिकभाव हैं ॥ च्यारि बहुरि तीन बहुरि तीन बहुरि पंच ऐसै द्वंद्ववृत्तिकरि बहुरि ए हैं भेद जिनिके ऐसे भेदशब्दतें वृत्ति करनी । यथाक्रमकी पूर्वसूत्रतें अनुवृत्ति लेणी । च्यारि आदि संख्या ज्ञानादिककै लगावणी । ऐसै च्यारि ज्ञान मति श्रुत अवधि मनःपर्यय । तीन अज्ञान कुमति कुश्रुत विभंग । तीन दर्शन चक्षु अचक्षु अवधि । पांच लब्धि दान लाभ भोग उपभोग वीर्य । ऐसे पंधरै भये । तहां सर्वघातिस्पर्द्धकनिका तो उदयक्षयतें बहुरि तिनिहीका सत्तारूप उपशमतें बहुरि देशघातिस्पर्द्धक उदय होतें क्षायोपशमिक भाव होय है। तहां ज्ञानादिककी प्रवृत्ति अपने आवरण तथा अंतरायके क्षयोपशमतें होय है । बहुरि सम्यक्त्व इहां वेदकसम्यक्त्व लेणा । यहु अनंतानुबंधी कषाय चतुष्कका तथा मिथ्यात्व सस्यग्मिथ्यात्व इनि दोऊनिके उदयक्षयतें तथा सत्तारूप उपशमतें बहुरि सम्यक्वप्रकृतिके देशघातिस्पर्द्धकका उदय होते जो तत्त्वार्थश्रद्धान हो है सो क्षायोपशमिकसम्यक्त्व है । बहुरि अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान इनि बारह कषायनिके उदयक्षयतें बहुरि सत्तारूप उपशमतें बहुरि संज्वलनकषायके चतुष्कमैं किसी एक कषायके देशघातिस्पर्द्धकनिका उदय होते बहुरि हास्यादि नोकषायका यथासंभव उदय होते जो त्यागरूप आत्माका परिणाम होय सा क्षायोपशमिकचारित्र है । बहुरि अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान कषाय अष्टकका उदयक्षयतें बहुरि सत्तारूप उपशमतें बहुरि प्रत्याख्यानकषायका उदय होतें बहुरि संज्वलन कपायके देशघातिस्पर्द्धकनिका उदय होते बहुरि नोकषाके नवकका यथासंभव उदय होतें आत्माकै विरताविरत परिणाम हो है सो क्षायोपशमिक संयमासंयम है। या देशविरति भी कहिये ॥
इहां कोई पूछे, स्पर्धक कहां ? ताका समाधान- जो, कर्मके परमाणूनिविर्षे फल देनेकी शक्तिरूप रस है तिनिके अविभागप्रतिच्छेदके समूहकी पंक्ति क्रमरूप वृद्धि तथा हानि ते स्पर्द्धक कहिये हैं । तहां उदयमैं आया जो कर्मपरमानिका एकसमयविर्षे एकसमयप्रवृद्ध, तामैं सिद्ध राशिके अनंतवै भाग अभव्यराशितै अनंतगुणे परमाणू होय हैं, तिनिविपैं सर्व ||