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________________ सिद्धि ११२ 151 दर्शन ए तीन कारण हैं । बहुरि मनुष्य नवमां वर्षते उपजावै है । आठवर्षताई नांही उपजै है । तहां भी जाति स्मरण धर्मश्रवण जिनबिंबदर्शन ए तीन कारण है । बहुरि देवगतिविर्षे उपजे पीछे अंतर्मुहूर्त पीछे उपजावै है। तहां । भवनवासीनि” ले सहस्रारस्वर्गताईका तौ जातिस्मरण धर्मश्रवण जिनमहिमाका दर्शन देवनिकी ऋद्धिका देखना इनि च्यारि कारणते उपजावै है । बहुरि आनतादि च्यारि स्वर्गनिके देवनिकै ऋद्धिदर्शनविना तीन कारणते उपजावै है । बहुरि सर्वार्थ व च२ नव ग्रैवेयकका जातिस्मरण धर्मश्रवण ए दोयही कारणते उपजावै है ऐसें जाननां ॥ निका टीका आगैं, जो क्षायिकभाव नवप्रकार कह्या ताके भेदस्वरूपके प्रतिपादनके आर्थि सूत्र कहै हैं पान अ२ ॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥ ४ ॥ ___ याका अर्थ- केवलज्ञान केवलदर्शन थायिकदान लाभ भोग उपभोग वीर्य बहुरि चकारते क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकचारित्र ऐसें नव प्रकार क्षायिकभाव है । इहां चशब्द है सो सम्यक्त्वचारित्र पूर्वसूत्रमें कहे तिनिका ग्रहणकै आर्थि है। बहुरि ज्ञानावरण नामा कर्मके अत्यंतक्षयतें तो केवलज्ञान क्षायिक हो है । बहुरि तेसैंही दर्शनावरण नामा कर्मके अत्यंतक्षयतें केवलदर्शन क्षायिक हो है । बहुरि दानांतराय नामा कर्मके अत्यंत क्षयते अनंतप्राणीनिके उपकार करनेवाला क्षायिक अभयदान होय है। बहुरि लाभांतराय नामा कर्मके अत्यंत अभावते नाही है कवलाहारकी क्रिया जिनिकै ऐसे जे केवली भगवान् ‘जिनिके शरीरके बलाधानके कारण अन्यमनुष्यनिके ऐसें नाही ' परमसुन्दर सूक्ष्म समय समय प्रति अनंते पुद्गलके परमाणू संबंधळू प्राप्त होय है, नोक्रर्मका समयप्रवृद्ध ऐसा आवै है मो आयिकलाभ है । बहुरि भोगांतराय नामा कर्मके समस्तके अभावतें अतिशयवान् पुष्पवृष्टि आदिक अनेकविशेप लिये अनंते क्षायिक भोग हैं। बहुरि उपभोगांतरायनामा कर्मके निरवशेप प्रलय होनेते सिंहासन चामर छत्रत्रयादिक विभूति प्रगट भये, ते भायिक अनंत उपभोग हैं । बहुरि वीर्यातराय कर्मके अत्यंत क्षयतें क्षायिक अनंतवीर्य प्रगट भया है । बहुरि पूर्व कहि जे मोहकी सात प्रकृति तिनिका अत्यंत नाश होनेः क्षायिकसम्यक्त्व हो है। बहुरि चारित्रमोहके अत्यंत अभावतें क्षायिकचारित्र प्रकट हो हैं । ऐसे क्षायिकके नव भाव है । इहां प्रश्न, जो, क्षायिकका दानादिक भावकरि किया अभयदानादिक है, तो सिद्धनिकै भी अभयदानादिकका प्रसंग आवै है । ताका उत्तर आचार्य कहै है, यह दोप इहां नाही आवै है । अरहतनिकै शरीर नामा नामकर्म तथा तीर्थकरनामा नामकर्मका उदय पाइये है ताकी अपेक्षातें कहै है । बहुरि तिनि कर्मनिका अभावतें He सिद्धनिकै इनिका प्रसंग नाही है । फेरी पूछै, जो, ऐसें है तो सिद्धनिकै इनि भावनिकी कैसे प्रवृत्ति है ? ताका उत्तर-2
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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