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| परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री १०८ शांतिसागर महाराजके आदेशसे श्री दिगबर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक सस्थाकी तरफसे ज्ञानदानके लिये छपी हुई।
सर्वार्थ
-..- श्रीवीतरागाय नमः .. सिद्धिा
॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ । वीर सवत् २४८१ ] टीका
[ ग्रंथ प्रकाशन समिति, फलटण : म २
अथ तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिध्दिटीका वचनिका पंडित जयचंदजी कृता
व चनि का पान १०८
दोहा-- उदयज उपशम मिश्र तजि, क्षायिक भाव उघारि ॥
जीवभाव उज्जल कियो, नमू ताहि मद छारि ॥ १ ॥
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ऐसे मंगलकरि सर्वार्थसिद्धिटीकाकारका वचन लिखिये हैं । तहां शिष्य पूछ है, हे भगवन् ! सम्यग्दर्शनका विषय भावकारि कहै जे जीवादितत्त्वनिमें आदिवि कह्या जो जीव, ताका स्वतत्त्व कहिये निज यथार्थ असाधारणस्वरूप कहा है ? सो कहिये । ऐसें पूछतें आचार्य सूत्र कहै है
॥ औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥१॥ याका अर्थ- औपशमिक क्षायिक मिश्र औदयिक पारिणामिक ए पाच भाव हैं ते जीवके निजतत्त्व है ॥ तहां आत्मावि कर्मकी निजशक्तिका कारणके वशते अनुभृति कहिये उदय न होना सो उपशम है । जैसे कतकादि कहिये निर्मली आदि वस्तुके संबंधते जलवि कर्दमका उपशम होय जलकै पीदै बैठी जाय ऊपरितै जल उज्जल होय जाय, तैसे उपशम जाननां । वहुरि कर्मकी अत्यंतनिवृत्ति होय तत्त्वमैसू उठि जाय सो क्षय है । जैसे उसही जलकों निर्मल पात्रमैं लीजिये तब कर्दमका अत्यंत अभाव है । तैसें क्षय जाननां । बहुरि उपशम भी क्षय भी दोऊ स्वरूप होय | तहां मिश्र है । जैसें तिसही जलविर्षे कतकादि द्रव्य डारै कर्दमका क्षीणाक्षीणबृत्ति कहिये कछु तो पीदै वैट्या कछू