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सर्वार्थ
वच
निका
३) संसार मोक्ष आकाशके फूल ज्यौं ठहरै । बहुरि तैसेंही जहां पुरुषका प्रयोजन है ताकै आर्थि जो प्रवृत्ति है सो भी ||
कथंचित् सत्यार्थ है । जो प्रयोजन तथा प्रयोजनका विषय पदार्थ सर्वथा असत्यार्थ होय तो आकाशके फूलकी ज्यौं झूठा | ठहरै । तथा एकेंद्रियादिक जीवकू व्यवहारकरि जीव कह्या है । सो व्यवहार सर्वथा झूठाही होय तौ जीवहिंसादिकका
कहना झूठा ठहरै । परमार्थनै जीव तौ नित्य है अमर है । एकेंद्रियादिक जीव कहनां झूठ है झूठाके घातविर्षे काहेकी सिद्धि हिंसा ? तथा याका विस्तार कहांताई कहिए ? जे व्यवहारकू सर्वथा असत्यार्थ कहै हैं ते तौ सर्व व्यवहारके टी का
लोप करनेवाले तीव्रमिथ्यात्वके उदयतें गाढे मिथ्यादृष्टि हैं-जिनमततें प्रतिकूल हैं, तिनिकी संगतिही स्वपरकी घातक है ऐसा जाननां ॥
१०५ बहुरि नयचक्रमैं नयनिके भेद ऐसे कहे हैं। द्रव्यार्थिकके भेद १० । तहां कर्मोपाधिनिरपेक्ष, जैसे संसारी जीव सिद्धसमान हैं । उत्पाद व्यय गौणकरि केवल ध्रौव्यरूप सत्ताकू ग्रहै, जैसें सद्प नित्यद्रव्य है । भेदनिरपेक्ष जैसे, गुणपर्यायतें द्रव्य अभिन्न हैं । कर्मोपाधि सापेक्ष जैसै, जीव रागादिस्वरूप है । उत्पादव्ययमुख्यकरि जैसे, सत् है सो उत्पादव्ययध्रौव्यरूप द्रव्य है । भेदसापेक्ष जैसे द्रव्य है सो गुणपर्यायवान् है । अन्वयद्रव्यार्थिक जैसे, द्रव्यगुणस्वरूप है। स्वद्रव्यादिग्राहक जैसे, अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि द्रव्य सद्रूप है । परद्रव्यादिग्राहक जैसैं परद्रव्य क्षेत्र काल भावकरि द्रव्य असद्प है । परमभावग्राहक जैसे, जीवद्रव्यळू शुद्ध अशुद्ध उपचारादिकरि रहित चैतन्यामात्र कहै । ऐसें दश भेद भये ॥
बहुरि पर्यायार्थिकके छह भेद हैं। अनादिनित्यपर्यायग्राही जैसे, चंद्रमा सूर्यादिकके विमान मेरुपर्वतादिक नित्य हैं। सादिनित्यपर्यायार्थिक जैसें, कर्म नाशिकरि सिद्ध भये ते सादिनित्यपर्याय हैं । सत्तागौणकार उत्पादव्ययरूप पर्यायार्थिक । जैसे, पर्याय समयस्थायी हैं । उत्पादव्ययध्रुवरूप सत्ताग्राही पर्यायार्थिक जैसे, समय समय पर्याय हैं । कर्मोपाधिनिरपेक्ष स्वभाव नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक जैसें, संसारी जीवके पर्याय सिद्धके पर्यायसमान शुद्ध हैं । कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध अनित्य पर्यायाथिक जैसे, संसारी जीव उपजै विनसै हैं । ऐसें पर्यायार्थिकके छह भेद कहै । ऐसें प्रत्यक्षपरोक्षप्रमाण द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयनिकरि तथा निर्देशादिक वा सत् आदिक अनुयोगनिकरि तत्त्वार्थनिका अधिगम होय है । सो तत्त्वार्थ, नाम स्थापना द्रव्य भाव इनि च्यारि निक्षेपनिकरि स्थापि तिनिका अधिगम करनां । यहू
अधिगमज सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिकू कारण है । निसर्गज सम्यग्दर्शन तौ मति अवधि ज्ञानकरि होय है । बहुरि अधि12| गमज है । सो गुरूपदेशके आधीन है । तातै श्रुतज्ञानरूप जो प्रमाणनयादिकका ज्ञान सो गुरूकेमुख श्रवण कियेते ।