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वच
सिद्धि
पान
लगावणे । तहां पुत्रादिक मेरे है, मै इनिका हूं ऐसे कहनां सो समानजातीय उपचारका उपचार हैं। बहुरि वस्त्र
आभरणादिक मेरे है ऐसे कहनां सो विजातीय उपचारका उपचार है । बहुरि देश गढ राज्य पुर मेरे हैं ऐसे कहनां मिश्रउपचारका उपचार है । ऐसें व्यवहारनय अनेकरूप प्रवर्ते है ।
बहुरि श्लोकवार्तिकमैं ऐसे कया है- जो एवंभूतनय तो निश्चय है । जाते जिसकी जो संज्ञा होय तिसही क्रियारूप सर्वार्थ
परिणमता पदार्थ होय सो याका विषय है । जैसे चैतन्य अपनां चैतन्यभावरूप परिणमै ताकू चैतन्यही कहै । क्रोधीकू निका टी का ना क्रोधीही कहै इत्यादि । बहुरि व्यवहार अशुद्धद्रव्यार्थिककू कह्या है । जाते दोय भाव तथा द्रव्य मिलेविना व्यवहार चलै
नाही । दोय मिलै तब अशुद्धता भई । सो यह निर्देशादिक अधिकारमैं लिखीही है । इहां प्रश्न, जो, अध्यात्मग्रन्थनिमें कह्या है, जो, निश्चयनय तौ सत्यार्थ है व्यवहार असत्यार्थ है- त्यजनेयोग्य है, सो यहु उपदेश कैसै है ? ताका उत्तरजो, उपदेश दोय प्रकार प्रवते है। तहां एक तौ आगम । तामें तौ निश्चय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोऊही नय परमार्थरूप । सत्यार्थ कहे हैं। अर प्रयोजन अर निमित्तके वशतें अन्यद्रव्यगुणपर्यायनिका अन्यद्रव्यगुणपर्यायनिविर्षे आरोपण करनां, सो उपचार है । या व्यवहार कहिये । असत्यार्थ भी कहिये गौण भी कहिये। बहुरि दूसरा अध्यात्म उपदेश । तामैं अध्यात्मग्रंथका आशय यह है, जो, आत्मा अपना एक अभेद नित्य शुद्ध असाधारण चैतन्यमात्र शुद्धद्रव्यार्थिकनयका विषयभूत है । सो तो उपादेय है ॥
बहुरि अवशेप भेद पर्याय अनित्य अशुद्ध तथा साधारण गुण तथा अन्यद्रव्य ए सर्व पर्यायनयके विषय ते सर्व : । होय हैं । काहेरौं ? जाते यह आत्मा अनादितै कर्मबंधपर्यायमैं मग्न है । क्रमरूप ज्ञानतें पर्यायनिकही जाणै है। अनादि
अनंत अपना द्रव्यत्वभावका याकै अनुभव नाही । तातै पर्यायमात्रमैं आपा जाने है । तातें ताकू द्रव्यदृष्टि करावनेके अर्थि पर्यायदृष्टीकू गौणकरि असत्यार्थ कहिकरि एकांतपक्ष छुडावनेके आर्थि झूठा कह्या है । ऐसा तो नाही, जो, ए पर्याय सर्वथाही झूठे हैं कछु वस्तु नाही आकाशके फूलवत् हैं। जो अध्यात्मशास्त्रके वचनकू सर्वथा एकांत पकडि पर्यायनिकू सर्वथा झूठा मानै तौ वेदांती तथा सांख्यमतीकी ज्यों मिथ्यादृष्टि ठहरै है। पहले तो पर्यायवुद्धिका एकांत मिथ्यात्व था । अब ताकू सर्वथा छोडि द्रव्यनयका एकांत मिथ्यादृष्टि होगा, तब गृहीतमिथ्यात्वका सद्भाव आवैगा । बहुरि उपनयके भेदनिवि सद्भुत असद्भुत उपचार कहै हैं । ते कथंचित् असत्य भी मानने । जाते ऐसा कह्या है, जो, प्रयोजन तथा निमित्तके वशतें प्रवत अन्यकू अन्य कहनां तहां उपचार है सो परस्पर द्रव्यनिकै निमित्तनैमित्तिक भाव है। सो तो सत्यार्थ हैही। तातें संसार मोक्ष आदि तत्त्वनिकी प्रवृत्ति है। जो निमित्त नैमित्तिकभाव झुठा होय तौ
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