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________________ सर्वार्थ सि छि टीका अ. पटादिकार्य नांही है केवल तार आदिहीका न्याराही कार्य है । सो भी कार्य जो तार आदि अपने अवयवसहित न होय तौ तिनितें न होय । तातें हमारी पक्षसिद्धि है । सापेक्षही कार्य उपजावै है । बहुरि कहै तार आदिवि वस्त्रादिकार्य शक्तिरूप है । तौ नयनिविर्षे भी निरपेक्षनिवि ज्ञानरूप तथा शब्दरूपनिवि कारणके वसतें सम्यग्दर्शनके कारणपणाका विशेषरूप परिणवनके सद्भावतें शक्तिरूप सम्यग्दर्शनके कारणका अस्तित्व है । तातें हमारा दृष्टांत विपम नाही वचहै, समही है, मिलता है । निका न आगै इनि नियमकै परस्पर मुख्यगौणपणांकी सापेक्षाकरि विधिनिषेधते सप्तभंग उपजै हैं सो कहिये हैं । तहां पान नगमकै तौ सग्रहादि छह नयनिकरि न्यारे न्यारे छह सप्तभंग होय है । बहुरि संग्रहकै व्यवहारादिककरि पांच होय || १०२ हैं । वहरि व्यवहारकै ऋजुसूत्रादिककरि च्यारि होय हैं । बहुरि ऋजुसूत्रके शब्दादिककरि तीन होय हैं । बहुरि शब्दके | समभिरूढादिककरि दोय होय हैं ॥ बहुरि समभिरूढकै एवंभूत नयकरि एकही होय है । ऐसे मूलनयनिकै तौ विधिनिषेधकरि इकडस सप्तभंगी भई । बहुरि नैगमनयके नव भेद हैं अर संग्रहके पर अपर करि दोय भेद हैं तातें तिनिके विधिनिषेधतें अठारह सप्तभंगी होय है। ऐसही पर अपर व्यवहारकै अठारह होय है । बहुरि ऋजुसूत्रकरि नव सप्तभंगी हो है । बहुरि शब्दके काल आदि छह भेदनिकरि चौवन सप्तभंगी होय है। बहुरि समभिरूढकरि नव एवंभूतनयकरि नव । ऐसै ये एकसौ सतरा सप्तभंगी भई । ऐसै संग्रहके दोय भेदनित व्यवहारादिके भेदनिकरि वाईस, बहुरि व्यवहारकै दोय भेदनितें ऋजुसूत्रादिकके अठारह, बहुरि ऋजुसूत्रके शब्दभेदकरि छह, बहुरि शब्दके भेदनिके समभिरूढ एवंभूतकरि वारह, ऐसै अठ्ठावन होय सब मिलि एकसौ पचहत्तरि भेदनिकी अपेक्षा भये, दोऊ मिलि एकसौ छिनवै भये । वहुरि उलटे करिये तव तेही भंग होय है । ऐसही उत्तरोत्तर भेदनिकरि शब्द थकी संख्यातसप्तभंगी होय है । तहां पूर्व प्रमाणसप्तभंगीवि भंगनिका विचार कह्या । तेसै इहां भी जाननां ॥ विशेप इतना- जो, तहां जिस पदार्थकू साधना ताका काल आदि आठ भेदनिकरि सकलादेश करनां । इहां तिनिका विकलादेश करना । जिस धर्मके नामकरि पदार्थकं कया तिसही धर्मविपें सर्वधर्मनिका काल आदिकार अभेदवृत्ति करनां सो तौ सकलादेश है। वहरि जिस धर्महीका काल आदि कहना दुसरे धर्मः भेदवृत्ती कहनां तहां विकलादेश हो है। सो पूर्व उदाहरणकरि कह्याही है । जैसे नैगमनयनें प्रस्थका संकल्प किया तहां संग्रहनय कहै यहु प्रस्थ संकल्पमात्र नांही सद्प है। तहां विधिनिषेध भया । तब कथंचित् प्रस्थ, कथंचित् अप्रस्थ, कथंचित् प्रस्थाप्रस्थ, । कयंचित् अवक्तव्य कथंचित् प्रस्थ अवक्तव्य, कथंचित् अप्रस्थ अवक्तव्य, कथंचित् प्रस्थाप्रस्थ अवक्तव्य ऐसे सात भये ।।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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