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________________ वच १०१. एकहो कहता जो समभिरूढ तातें अल्पविषय भया । ऐसे उत्तरोत्तर अल्पविषय है। इहां दृष्टांत, जैसे एक नगरवि एक वृक्ष उपरि पक्षी बोले था, ताकू काहूंनें कही, या नगरविर्षे पक्षी बोलै है। हा काहूनें कही, या नगरमैं एक वृक्ष है तामैं बोलै है । काहूनें कही, या वृक्षका एक बडा डाला है तामैं बोले है, काहूंनें । कही, इस डालेमैं एक शाखा छोटी डाली है तामैं बोले है । काहू. कही, इस डाहलीके एक देशविर्षे बैठा बोलै है । सर्वार्थसिद्धि काहूनें कही, पक्षी अपने शरीरविर्षे बोलै है । काहूनें कही वाके शरीरमैं कंठ है तामैं बोले है । ऐसै उत्तरोत्तर विषय निका टीका / छूटता गया । सो यह अनुक्रमते इनि नयनिके वचन जानने । नैगमनयने तौ वस्तुका सत् असत् दोऊ लिये । संग्रह । पान . 10 नयनै सतही लिया । व्यवहारनै सत्का एक भेद लिया । ऋजुसूत्रनै वर्तमानकूही लिया । शब्दनै वर्तमान सत्मैं भी । भेदकरि एक कार्य पकड्या । समभिरूढने या कार्यके अनेक नाम थे तिसमै एक नामकू पकड़ जिस नामकू पकड्या तिसही क्रियारूप परिणमताकू पकड्या । ऐसैही जिस पदार्थकू साधिये तापरि सर्वहीपरि ऐसै नय लगाय लेने । बहुरि पहला पहला नय तौ कारणरूप है। अगिला अगिला कार्यरूप है । ता कार्यकी अपेक्षा स्थूल भी कहिये । ऐसै ये नय पूर्वपूर्व तौ विरुद्वरूप महाविषय है। उत्तर उत्तर अनुकूलरूप अल्पविषय है । जातें पहला का नयका विषय अगिले नयमैं नाही ताते विरुद्ध है । अगिलेका विषय पहलेमें गर्मित है ताते ताके अनुकूलपणां है ॥ ऐसे ये नयभेद काहेते होय है ? जाते द्रव्य अनंत शक्तिळू लिये है तातें एक एक शक्ति प्रति भेदरूप भये बहुत भेद होय हैं । ऐसें ए नय मुख्यगौणपणां करि परस्परसापेक्षरूप भये संते सम्यग्दर्शनके कारण होय हैं । जैसे सूतके तार आदि है ते पुरुषके अर्थक्रियाके साधनकी सामर्थ्यते यथोपायं कहिये जैसे वस्त्रादिक बणि जाय तैसा उपायकरि थापे हुये वस्त्रादिक नाम पावै है । बहुरि वह तार जो परस्पर अपेक्षारहित न्यारे न्यारे होय तौ वस्त्रादिक नाम न पावै तैसेंही ये नय जानने ॥ इहां कोई कहै यह तारनिका उदाहरण तो विषम उपन्यास है मिल्या नाही । जाते तार आदिक तो अपेक्षारहित न्यारेन्यारे भी अर्थमात्रा कहिये प्रयोजनकं सिद्ध करै है। तथा अर्थक्रिया करै है। जैसे कोई तार तो न्यारा शीकनिके बांधनेकू शस्त्रके घाव सीननेकुं समर्थ होय है। कोई तार वेलिखीय आदिका ऐसा होय जो भारा आदि बांधनेकू समर्थ है । बहुरि ये नय जब निरपेक्ष होय तब कछु भी सम्यग्दर्शनकी मात्राकू नाही उपजावै है । तहां आचार्य BI कहै हैं, यह दोष इहां नांही है ॥ जातें हमनें कह्या ताका ज्ञान तुमारै हुवा नांही । कहे अर्थकू विना समझ्या यह । उराहना दिया । हमनें तो ऐसें कह्या है निरपेक्ष तार आदि कहै ते वस्त्रादिकार्य नाही है । बहुरि तुमनें कह्या सो तौ
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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