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और उनके सिद्धान्त।
तथा यदि कोई छात्र उस समय आपसे इस विषयमें वाद करता था तो आप अपनी अद्भुत मेधा और अकाट्य प्रमाणों के वल से उसे निरस्त कर देते थे । उस समय सारी विद्वन्मण्डली में श्रीशंकराचार्य प्रतिपादित मायावाद ही अपना प्रभाव जमाये हुए था। किन्तु आचार्यचरण ने इन सब वादों का खूब मनन पूर्वक अभ्यास कर उद्घोषित किया था कि "श्रीशंकराचार्यका ही मत नहीं किन्तु श्रीरामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत और श्रीमध्वाचार्यका द्वैतवाद भी सर्वांश में ब्रह्मसूत्रानुसार ठीक नहीं कह सकते । अथ च ब्रह्म सूत्र का वास्तविक अर्थ प्रकट करनेवाला भाष्य अभी तक हुआ नहीं है।" अपने अभ्यास क्रम में ही साधारण वादों के अवसर में उनने स्पष्ट प्रमाणित किया था कि ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् और गीता इन प्रस्थान त्रय के अनुसार यदि जगत् में कोई भी वाद है तो वह केवल ब्रह्मवाद है । एवं वह वाद मायावाद और दूसरे वादों से अलग अपना विचार स्थापित करता है। आपका यह वाद छात्रों की परिषद् तकही परिमित न रहता किन्तु काशीजी में जब २ कोई विद्वानों की सभा होती और जब २ कोई दिग्गज विद्वान् का समागम आपको होता तब २ आप अपने इस ब्रह्मवाद की कथा छेड देते और अपनी वालावस्था में ही विद्वानों के मन पर अपने विशिष्ट पाण्डित्य का भारी बोझ लाद देते।