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श्रीमदल्लभाचार्य जाते हैं । इस सत्यको किसीने नहीं कहा । यहतो एक नमूना है । समय थोडा है नहीं तो आचार्यश्रीकी सम्पूर्णवाणीमें में सत्यका निदर्शन कराता। __ शौच (पवित्रता) गुण भी भगवद्गुण है और यहभी आचार्यश्री में है । तत्वदीपमें आपने कहा है 'स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच निवर्तनम् । इन्द्रियाश्च विनिग्राहः सर्वथा न त्यजेत्रयम् ' अपनी शक्तिके अनुसार वर्णादिधर्मोका आचरण, अधर्म से निवर्तन, और इन्द्रियों को रोकना, इन तीनों का परित्याग किसी तरहसे भी वैष्णव न करै । इस परमी टीका करते हुए आज्ञा करते है कि 'शक्त्या ' यह पद 'स्वधर्माचरणं' के साथ लगाना, अन्यके साथ नहीं । अर्थात् स्वधर्म तो भलें अपनी शक्तिके अनुसार करै किन्तु विधर्मसे निवर्तन, और इन्द्रियनिग्रह तो शक्ति न रहने पर भी न छोडे । 'अरेणापि कर्तव्यं स्वस्यसामर्थ्यमावनात् । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।' मनको रोकनेमें प्रकार-पर वह अधिक है।
दया और क्षान्ति भी भगवद्गुण है । इनके विषयमें आप कहते है कि"दयया सर्वभूतेषु..................... | निबंध. “सर्व सहेतपरुषं सर्वेषां कृष्णभावनात्।" "निदुःखसहनं धैर्यमामृतेः सर्वतः सदा ।".
विवेकधैर्याश्रय ।