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और उनके सिद्धान्त ।
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है । अथवा जिनका है और नहीं करते या नहीं कर सक्ते उनका उद्धार कैसे हो सक्ता है । और जो लोग वैदिक साधन करते हैं वे विधिसे हीन और दोषयुक्त करते हैं फिर उनकाभी उद्धार कैसे हो । देश काल द्रव्य कर्ता मंत्र और प्रकार इन छः के शुद्ध होनेसे कर्म शुद्ध होता है और तब ही वैदिकसाधन सिद्ध होते हैं । ये छहों शुद्ध मिलने कलियुगमें असंभव हैं । पक्षपातका चश्मा हटाकर विचार पूर्वक देखोगे तो मालुम पडेगा कि इनमेंसे एक भी शुद्ध नहीं मिलता ।
तो यहां एक प्रश्न होता है कि ऐसी अवस्थामें क्या धर्म करना ही छोड़ दें ? तो आचार्यश्री उत्तर देते हैं कि नहीं, धर्ममार्ग का परित्याग कभी नहीं करना चाहिये । किन्तु धर्मके साथ ईश्वरका आश्रय लो । ईश्वर सर्वसमर्थ है असाधनों को भी सावन करसक्ता है । जो कार्य प्रमाण चलसे नहीं होता वह प्रमेय बलसे हो सक्ता है । श्रीकृष्णके दृढ आश्रयसे सब सहज हो जाता है । कृष्णाश्रय प्रभृति ग्रन्थोंका यही तात्पर्य है
गङ्गादितीर्थवर्येषु दुष्टैरेवावृतेष्विह । तिरोहिताधिदेवेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥
कर्मठलोग कर्मके अन्तमें 'मन्त्रहीनं' 'यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या' आदि श्लोक बोलते हैं उनका भी यही तात्पर्य है । प्रमाणमें प्रमेयवल लानेके लिये ही यह बोले