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श्रीमद्वल्लभाचार्य २-गृह को महाप्रभुजी ने अनर्थ का मूल कहा है और उसके सर्वथा त्याग करने का उपदेश दिया है और कहा है कि 'यदि गृह छोडने में असमर्थता होती हो तो उसी गृह को कृष्ण के अर्थ प्रयोग कर देना चाहिये' अर्थात् गृह को भगवान् में समर्पण कर उस में निवास करना चाहिये । भगवान् सब अनर्थों के वारक हैं।
३--संग को भी आचार्यों ने दोष गिना है किन्तु कहा है कि वही संग यदि वैष्णवों के साथ, सत्पुरुषों के साथ
और भगवद्भक्त के साथ किया जाय तो वह श्रीकृष्ण में भक्ति बढाने वाला होता है; क्यों कि सन्तपुरुष संग की भेषज हैं।
४-आचार्यजी की आज्ञा है कि भगवत्सेवा अपने पुत्र और कलत्र के साथ करनी चाहिये । यदि उन की अभिरुचि सेवा में न हो तो अकेला ही करे । किन्तु यदि वे लोग सेवा में विघ्न डाला करें और सेवा करते समय उद्वेग जनक बातें कहा करें तो कर्तव्य यह है कि घर का परित्याग कर दे । बहिर्मुख घर के त्याग करने में कोई भी दोष नहीं है।
५-वैष्णवों को भगवान् में परम विश्वास होना चाहिये। भगवान् ने स्वयं आज्ञा की है
मयि चेदस्ति विश्वासः श्रीगोपीजनवल्लभे । तदा कृतार्था यूयं हि शोचनीयं न कर्हि चित् ॥